"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-11" के अवतरणों में अंतर

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== प्रथम अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==प्रथम (1) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)==
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योगपर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद </div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
;राजा विराट की सभा में भगवान् श्री कृष्ण का भाषण   
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;राजा विराट की सभा में भगवान  श्री कृष्ण का भाषण   
 
<poem>नारायणे नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्‍तमम् ।
 
<poem>नारायणे नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्‍तमम् ।
 
देवीं सरस्वती ब्यास ततो जयमुदीरयेत् ॥</poem>
 
देवीं सरस्वती ब्यास ततो जयमुदीरयेत् ॥</poem>
अन्तर्यामी नारायण स्वरूप [[कृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]], (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओ का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्‍यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिए। वैशम्पायन जी कहते हैं- [[जनमेजय]]! उस समय [[अभिमन्यु]] विवाह करके कुरूबीर [[पाण्डव]] तथा उनके अपने पक्ष के लोग ( यादव पाचांल आदि ) अत्यन्त आनन्दित हुए। रात्रि में विश्राम करके वे प्रातःकाल जगे और (नित्य कर्म करके) विराट की सभा में उपस्थित हुए। मत्स्य देश के अधिपति विराट की बहू सभा अत्यन्त समृद्धि शालिनी थी। उसमें मणियों ( मोती-मूँगे आदि) खिड़कियां और झालरें लगी थीं। उसके फर्श और दीवारों में उत्‍तम - उत्‍तम रत्नों ( हीरे- पन्ने आदि ) की पचीकारी की गयी थी। इन सबके कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस सभा भवन में यथा योग्य स्थानों पर आसन लगे हुए थे, जगह-जगह मालाएँ लटक रही थीं और सब ओर सुगन्ध फैल रही थी वे श्रेष्ठ नरपतिगण उसी सभा में एकत्र हुए। यहाँ सबसे पहले [[राजा विराट]] और [[द्रुपद]] आसन पर विराजमान हुए; क्योंकि वे दोनों समस्त भूपतियों में वृद्ध और माननीय थे। तत्पश्चात अपने पिता वसुदेव के साथ [[बलराम]] और श्रीकृष्ण ने भी आसन ग्रहण किये। पांचालराज द्रुपद के पास शिनिवंश श्रेष्ठ वीर सात्यकि तथा [[रोहिणी]] नन्दन बलराम जी बैठे थे और मत्स्यराज विराट के अत्यन्त निकट श्रीकृष्ण तथा [[युधिष्ठिर]] विराजमान थे। राजा द्रुपद के सब पुत्र [[भीम|भीमसेन]], [[अर्जुन]], [[नकुल]], [[सहदेव]], युद्धवीर [[प्रद्युम्न]] और साम्य, विराट के पुत्रों सहित [[अभिमन्यु]] तथा द्रौपदी सभी पुत्र सुवर्ण जटित सुन्दर सिंहासनों पर आसपास ही बैठे थे। द्रौपदी के पांचों पुत्र पराक्रम सौन्दर्य और बल में अपने पिता पाण्डवों के ही समान थे। सब के सब शूरवीर थे। इस प्रकार चमकीले आभूषणों तथा सुन्दर वस्त्रों से विभूषित अन्य समस्त महारथियों के बैठ जाने पर राजाओं से भरी हुई उन समृद्धिशालिनी सभा ऐसी शोभा पा रही थी, मानों उज्जवल ग्रह-नक्षत्र भरा आकाश जगमगा रहा हो। तदन्तर उन शूरवीर पुरूषों ने समाज में जैसी बातचीत करनी उचित है, वैसी ही विविध प्रकार की विचित्र बातें कीं, फिर वे सब नरेश भगवान् श्री कृष्ण की ओर देखते हुए दो घड़ी तक कुछ सोचते हुए चुप बैठे रहे। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के कार्य के लिये ही उन श्रेष्ठ राजाओं को संगठित किया था। उन सब लोगों की बात-चीत बंद हो गयी, तब वे सिंह के समान पराक्रमी नरेश एक साथ श्रीकृष्ण के सारगर्मित तथा श्रेष्ठ फल देने वाले वचन सुनने लगे। श्रीकृष्ण ने भाषण देना प्रारम्भ कर दिया-उपस्थित सहुद्रण ! आप सब लोगों को यह मालूम ही है कि सुबल पुत्र शकुनि द्यूतसभा में किस प्रकार कपट करके धर्मात्मा युधिष्ठिर को परास्त किया और इनका राज्य छीन लिया हैं उस जूए में यह शर्त रख दी गयी थी कि जो हारे, वह बारह वर्षों तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करे। पाण्डव सदा सत्य पर आरूढ रहते है। सत्य ही इनका रथ (आश्रय) है। इनमें वेग पूर्वक समस्त भूमण्डल को जीत लेने की शक्ति है तथापि इन वीरागण्य पाण्डूकुमारों ने सत्य-ख्याल करके तेरह वर्षों तक वनवास और अज्ञातवास के उस कठोर धैर्यपूर्वक पालन किया है, जिसका स्वरूप बडा ही उग्र है। इस तेरहवें वर्ष को पार करना बहुत ही कठिन था, परंतु इन महात्माओं ने आपके पास ही अज्ञात रूप से रहकर भांति-भाति के असहाय कलेश सहते हुए यह वर्ष बिताया है, इसके अतिरिक्त बारह वर्षों तक ये वन में भी रह चुके है। अपनी कुल परम्परा से प्राप्त हुए राज्य की अभिलाषा से ही इन वीरों ने अब तक अज्ञातवस्था में दूसरों की सेवा में संलग्न रहकर तेरहवाँ वर्ष पूरा किया है। ऐसी परिस्थिति में जिस उपाय से धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा राजा [[दुर्योधन]] का भी हित हो, उसका आप लोग विचार करें। आप कोई ऐसा मार्ग ढूँढ निकाले, जो इन कुरूक्षेत्र वीरों के लिए धर्मानुकूल, न्यायोचित तथा यश की वृद्धि करने वाला हो धर्मराज युधिष्ठिर यदि धर्म के विरूद्ध देवताओं का भी राज्य प्राप्त होता हो, तो से लेना नहीं चाहेंगे। अतः सभी सभासद् कौरवों के बढे़ हुए लोभ को, युधिष्ठिर की धर्मशाला को तथा इन दोनों पारस्परिक सम्बन्धों को देखते हुए अलग-अलग तथा एक राय से भी कुछ मिश्रण करें । ये पाण्डवगण सदा ही सत्यपरायण होने के कारण पहले की हुई प्रतिज्ञा यथावत् पालन करके हमारे सामने उपस्थित है। यदि अब भी धृतराष्ट्र पुत्र इनके साथ विपरीत व्यवहार ही करते रहेगे-इनका राज्य नही लौटा देगे, तो पाण्डव उन सबको मार डालेंगे । कौरव लोग पाण्डवो के कार्य में विघ्न डाल रहे है और उनकी बुराई पर ही तुले हुए है: यह बात निश्चित रूप से जान लेने पर मार गिरायेगे । सम्भव है सुहृदों और सबन्धियों को उचित है कि वे उन दुष्ट कौरवों को (इन प्रकार अत्याचार करने से ) रोकें। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र इस प्रकार युद्ध छेडकर इन पाण्डवों को सतायेगे, तो उनके बाध्य करने पर ये डटकर उनका सामना करेंगे और उन्हे मार गिरायेगे । सम्भव है, आप लोग यह सोचते है हो कि ये पाण्डव अल्पसंख्यक होने कारण उन पर विजय पाने में समर्थ नही है। तथापि ये सब लोग अपने हितेषी सुहृदों के साथ मिलकर शत्रुओ के विनाश के लिए प्रयत्न तो करेगे ही। ( अतः इन्हे आप लोग दुर्बल न समझे ) युद्ध का भी निश्चय कैसे किया जाय ; क्योंकि, दुर्योधन के भी मत का अभी ठीक-ठाक पता नही वह क्या करेगा। शत्रु पक्ष का विचार जाने बिना आप लोग कोई ऐसा निश्चय कैसे कर सकते है जिसे अवश्य ही कार्यरूप में परिणित किया जा सके । अतः यह मेरा विचार है कि यहाँ से कोई धर्मशील, पवित्रात्मा कुलीन और सावधान पुरूष दूत बनकर वहाँ जाए। वह दूत ऐसा होना चाहिए, जो उनके जोश तथा रोष को शान्त करने में समर्थ हो और उन्हे युधिष्ठर को इनका आधा राज्य दे देने के लिये विवश कर सके ।राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण धर्म और अर्थ से युक्त, मधुर एवं उभयपक्ष के लिये समानरूप से हितकर वचन सुनकर उनके बडे भाई बलरामजी ने उस भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा कर के अपना वक्तव्य आरम्भ किया।
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अन्तर्यामी नारायण स्वरूप [[कृष्ण|भगवान  श्रीकृष्ण]],(उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन,(उनकी लीला प्रकट करने वाली)भगवती सरस्वती और (उन लीलाओ का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्‍यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिए। वैशम्पायन जी कहते हैं-[[जनमेजय]]! उस समय[[अभिमन्यु]]विवाह करके कुरूबीर [[पाण्डव]] तथा उनके अपने पक्ष के लोग ( यादव पाचांल आदि ) अत्यन्त आनन्दित हुए। रात्रि में विश्राम करके वे प्रातःकाल जगे और (नित्य कर्म करके) विराट की सभा में उपस्थित हुए। मत्स्य देश के अधिपति विराट की बहू सभा अत्यन्त समृद्धि शालिनी थी। उसमें मणियों(मोती-मूँगे आदि) खिड़कियां और झालरें लगी थीं। उसके फर्श और दीवारों में उत्‍तम-उत्‍तम रत्नों( हीरे- पन्ने आदि ) की पचीकारी की गयी थी। इन सबके कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस सभा भवन में यथा योग्य स्थानों पर आसन लगे हुए थे, जगह-जगह मालाएँ लटक रही थीं और सब ओर सुगन्ध फैल रही थी वे श्रेष्ठ नरपतिगण उसी सभा में एकत्र हुए। यहाँ सबसे पहले [[राजा विराट]] और [[द्रुपद]] आसन पर विराजमान हुए; क्योंकि वे दोनों समस्त भूपतियों में वृद्ध और माननीय थे। तत्पश्चात अपने पिता वसुदेव के साथ [[बलराम]] और श्रीकृष्ण ने भी आसन ग्रहण किये। पांचालराज द्रुपद के पास शिनिवंश श्रेष्ठ वीर सात्यकि तथा [[रोहिणी]] नन्दन बलराम जी बैठे थे और मत्स्यराज विराट के अत्यन्त निकट श्रीकृष्ण तथा [[युधिष्ठिर]] विराजमान थे। राजा द्रुपद के सब पुत्र [[भीम|भीमसेन]], [[अर्जुन]], [[नकुल]], [[सहदेव]], युद्धवीर [[प्रद्युम्न]] और साम्य, विराट के पुत्रों सहित [[अभिमन्यु]] तथा द्रौपदी सभी पुत्र सुवर्ण जटित सुन्दर सिंहासनों पर आसपास ही बैठे थे। द्रौपदी के पांचों पुत्र पराक्रम सौन्दर्य और बल में अपने पिता पाण्डवों के ही समान थे। सब के सब शूरवीर थे। इस प्रकार चमकीले आभूषणों तथा सुन्दर वस्त्रों से विभूषित अन्य समस्त महारथियों के बैठ जाने पर राजाओं से भरी हुई उन समृद्धिशालिनी सभा ऐसी शोभा पा रही थी, मानों उज्जवल ग्रह-नक्षत्र भरा आकाश जगमगा रहा हो। तदन्तर उन शूरवीर पुरूषों ने समाज में जैसी बातचीत करनी उचित है, वैसी ही विविध प्रकार की विचित्र बातें कीं, फिर वे सब नरेश भगवान  श्री कृष्ण की ओर देखते हुए दो घड़ी तक कुछ सोचते हुए चुप बैठे रहे। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के कार्य के लिये ही उन श्रेष्ठ राजाओं को संगठित किया था। उन सब लोगों की बात-चीत बंद हो गयी, तब वे सिंह के समान पराक्रमी नरेश एक साथ श्रीकृष्ण के सारगर्मित तथा श्रेष्ठ फल देने वाले वचन सुनने लगे। श्रीकृष्ण ने भाषण देना प्रारम्भ कर दिया-उपस्थित सहुद्रण ! आप सब लोगों को यह मालूम ही है कि सुबल पुत्र शकुनि द्यूतसभा में किस प्रकार कपट करके धर्मात्मा युधिष्ठिर को परास्त किया और इनका राज्य छीन लिया हैं उस जूए में यह शर्त रख दी गयी थी कि जो हारे, वह बारह वर्षों तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करे। पाण्डव सदा सत्य पर आरूढ रहते है। सत्य ही इनका रथ (आश्रय) है। इनमें वेग पूर्वक समस्त भूमण्डल को जीत लेने की शक्ति है तथापि इन वीरागण्य पाण्डूकुमारों ने सत्य-ख्याल करके तेरह वर्षों तक वनवास और अज्ञातवास के उस कठोर धैर्यपूर्वक पालन किया है, जिसका स्वरूप बडा ही उग्र है।  
  
 
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<div align="center">'''[[महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 1 श्लोक 1-26|आगे जाएँ »]]'''</div>
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
  
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१२:१२, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
राजा विराट की सभा में भगवान श्री कृष्ण का भाषण

नारायणे नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्‍तमम् ।
देवीं सरस्वती ब्यास ततो जयमुदीरयेत् ॥

अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण,(उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन,(उनकी लीला प्रकट करने वाली)भगवती सरस्वती और (उन लीलाओ का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्‍यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिए। वैशम्पायन जी कहते हैं-जनमेजय! उस समयअभिमन्युविवाह करके कुरूबीर पाण्डव तथा उनके अपने पक्ष के लोग ( यादव पाचांल आदि ) अत्यन्त आनन्दित हुए। रात्रि में विश्राम करके वे प्रातःकाल जगे और (नित्य कर्म करके) विराट की सभा में उपस्थित हुए। मत्स्य देश के अधिपति विराट की बहू सभा अत्यन्त समृद्धि शालिनी थी। उसमें मणियों(मोती-मूँगे आदि) खिड़कियां और झालरें लगी थीं। उसके फर्श और दीवारों में उत्‍तम-उत्‍तम रत्नों( हीरे- पन्ने आदि ) की पचीकारी की गयी थी। इन सबके कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस सभा भवन में यथा योग्य स्थानों पर आसन लगे हुए थे, जगह-जगह मालाएँ लटक रही थीं और सब ओर सुगन्ध फैल रही थी वे श्रेष्ठ नरपतिगण उसी सभा में एकत्र हुए। यहाँ सबसे पहले राजा विराट और द्रुपद आसन पर विराजमान हुए; क्योंकि वे दोनों समस्त भूपतियों में वृद्ध और माननीय थे। तत्पश्चात अपने पिता वसुदेव के साथ बलराम और श्रीकृष्ण ने भी आसन ग्रहण किये। पांचालराज द्रुपद के पास शिनिवंश श्रेष्ठ वीर सात्यकि तथा रोहिणी नन्दन बलराम जी बैठे थे और मत्स्यराज विराट के अत्यन्त निकट श्रीकृष्ण तथा युधिष्ठिर विराजमान थे। राजा द्रुपद के सब पुत्र भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, युद्धवीर प्रद्युम्न और साम्य, विराट के पुत्रों सहित अभिमन्यु तथा द्रौपदी सभी पुत्र सुवर्ण जटित सुन्दर सिंहासनों पर आसपास ही बैठे थे। द्रौपदी के पांचों पुत्र पराक्रम सौन्दर्य और बल में अपने पिता पाण्डवों के ही समान थे। सब के सब शूरवीर थे। इस प्रकार चमकीले आभूषणों तथा सुन्दर वस्त्रों से विभूषित अन्य समस्त महारथियों के बैठ जाने पर राजाओं से भरी हुई उन समृद्धिशालिनी सभा ऐसी शोभा पा रही थी, मानों उज्जवल ग्रह-नक्षत्र भरा आकाश जगमगा रहा हो। तदन्तर उन शूरवीर पुरूषों ने समाज में जैसी बातचीत करनी उचित है, वैसी ही विविध प्रकार की विचित्र बातें कीं, फिर वे सब नरेश भगवान श्री कृष्ण की ओर देखते हुए दो घड़ी तक कुछ सोचते हुए चुप बैठे रहे। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के कार्य के लिये ही उन श्रेष्ठ राजाओं को संगठित किया था। उन सब लोगों की बात-चीत बंद हो गयी, तब वे सिंह के समान पराक्रमी नरेश एक साथ श्रीकृष्ण के सारगर्मित तथा श्रेष्ठ फल देने वाले वचन सुनने लगे। श्रीकृष्ण ने भाषण देना प्रारम्भ कर दिया-उपस्थित सहुद्रण ! आप सब लोगों को यह मालूम ही है कि सुबल पुत्र शकुनि द्यूतसभा में किस प्रकार कपट करके धर्मात्मा युधिष्ठिर को परास्त किया और इनका राज्य छीन लिया हैं उस जूए में यह शर्त रख दी गयी थी कि जो हारे, वह बारह वर्षों तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करे। पाण्डव सदा सत्य पर आरूढ रहते है। सत्य ही इनका रथ (आश्रय) है। इनमें वेग पूर्वक समस्त भूमण्डल को जीत लेने की शक्ति है तथापि इन वीरागण्य पाण्डूकुमारों ने सत्य-ख्याल करके तेरह वर्षों तक वनवास और अज्ञातवास के उस कठोर धैर्यपूर्वक पालन किया है, जिसका स्वरूप बडा ही उग्र है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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