महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 39-57

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:२३, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वादश (12) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद

जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, उस समय दो भयंकर दानव मधु और कैटभ उनके प्राण लेने को उद्यत हो गये। उनका यह अत्याचार देखकर क्रोध में भरे हुए आप श्री हरि के ललाट- से भगवान शंकर का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके हाथों में त्रिशूल शोभा पा रहा था। उनके तीन नेत्र थे। इस प्रकार वे दोनों देव ब्रह्म और शिव आपके ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों आपके ही आज्ञा का पालन करने वाले हैं, यह बात मुझे नारदजी ने बतलायी थी। नारायण श्रीकृष्ण ! इसी प्रकार पूर्वकाल में चैत्ररथ वन के भीतर आपने प्रचुर दक्षिणाओं से सम्पन्न अनेक यज्ञों तथा महासत्र का अनुष्ठान किया था। भगवान पुण्डरीकाक्ष ! आप महान बलवान हैं। बलदेव जी आपके नित्य सहायक हैं। आपने बचपन में ही जो-जो महान कर्म किये हैं, उन्हें पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती पुरुषों ने न तो किया है न करेंगे। आप ब्राह्मणों के साथ कुछ काल तक कैलाश पर्वत पर भी रहे हैं।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! श्री कृष्ण के आत्मस्वरूप पाण्डुनन्दन उन महात्मा से ऐसा कहकर चुप हो गये । तब भगवान जनार्दन ने कुन्ती कुमार से इस प्रकार कहा-- ‘पार्थ ! तुम मेरे ही हो, मैं तुम्हारा ही हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। जो तुमसे द्वेष रखता है। जो तुम्हारे अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। ‘दुर्द्धर्ष वीर ! तुम नर हो और मैं नारायण हरि हूँ। इस समय हम दोनों नर- नारायण ऋषि ही इस लोक में आये है।' ‘कुन्तीकुमार ! तुम मुझसे अभिन्न हो और मैं तुमसे पृथक नहीं हूँ। भरतश्रेष्ठ ! हम दोनों का भेद जाना नहीं जा सकता।'

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई पांचाल राजकुमारी द्रौपदी भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।

द्रौपदी ने कहा - प्रभो ! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत का सृष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवकाल का यही मत है। दुर्द्धष मधुसूदन ! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्री हरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुराम का कथन है। पुरुषोत्तम ! कश्यपजी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर ! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के ईश्वर नारदजी ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है,उसी प्रकार आप ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से बारम्बार क्रीड़ा करते रहते हैं। प्रभो ! स्वर्गलोक आपके मस्तक में और पृथ्वी आपके चरणों में व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्मज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परमश्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम ! युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो ( सबके स्वामी ), आप ही विभु ( सर्वव्यापी ) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।