महाभारत वन पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-15

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पंचदश अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व पंचदश अध्याय श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
सौभ-नाश की विस्तृत कथा के प्रसंग में द्वारका में युद्ध सम्बन्धी रक्षात्मक तैयारियों का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा- महाबाहो ! वसुदेवनन्दन ! महामते ! तुम सौभ-विमान के नष्ट होने का समाचार विस्तार पूर्वक कहो। मैं तुम्हारे मुख से इस प्रसंग को सुनते-सुनते तृप्त नहीं हो रहा हूँ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाबाहो ! नरेश्वर ! भरतश्रेष्ठ ! श्रुतश्रवा1 के पुत्र शिशुपाल के मारे जाने का समाचार सुनकर शाल्व ने द्वारका पुरी पर चढ़ाई की।

पाण्डुनन्दन ! उस दुष्टात्मा शाल्व ने सेना द्वारा द्वारका पुरी को सब ओर से घेर लिया था। वह स्वयं आकाशचारी विमान सौभ पर व्यूहरचना पूर्वक विराजमान हो रहा था। 1 श्रुतश्रवा शिशुपाल की माता का नाम है। यह वसुदेवजी की बहिन थी। उसी पर रहकर राजा शाल्व द्वारका पुरी के लोगों से युद्ध करता था। वहाँ भारी युद्ध छिड़ा हुआ था और उसमें सभी दिशाओें से अस्त्र-शस्त्र के प्रहार हो रहे थे। द्वारका पुरी में सब ओर पताकाएँ फहरा रहीं थी। ऊँचे-ऊँचे गोपुर वहाँ चारों दिशाओें में सुशोभित थे। जगह-जगह सैनिकों के समुदाय युद्ध के लिये प्रस्तुत थे। सैनिकों के आत्माक्षा पूर्वक युद्ध की सुविधा के लिये स्थान-स्थान पर बुर्ज बने हुए थे। युद्धोपयोगी यन्त्र वहाँ बैठाये गये थे तथा सुरंग द्वारा नये-नये मार्ग निकालने के काम में बहुत-से लोग जुटे हुए थे। सड़कों पर लोहे के विषाक्त काँटे अदृश्य रूप से बिछाये गये थे। अट्टालिकाओं और गोपुरा में अन्न का संग्रह किया था। शत्रु पक्ष के प्रहारों को रोकने के लिये जगह-जगह मार्चेबन्दी की गयी थी। शत्रुओें के चलाये हुए जलते गोले और अलात ( प्रज्वलित लौहमय अस्त्र ) को भी विफल करके नीचे गिरा देने वाली शक्तियाँ सुसज्जित थीं। अस्त्रों से भरे हुए मिट्टी और चमडे. के असंख्य पात्र रखे गये थे। भरतश्रेष्ठ ! ढोंल , नगारे और मृदंग आदि जुझाऊ बाजे भी बज रहे थे। राजन् ! तोमर, अंकुश, शतघ्री, लांगल, भुशुण्डी, पत्थर के गोले, अन्यान्य अस्त्र-शस्त्र, फरसे, बहुत-सी सुदृढ़ ढ़ालें और गोला-बारूद से भरी हुई तोपें यथास्थान तैयार रखी गयी थीं। भरतकुलभूषण ! शास्त्रोक्त विधि से द्वारका पुरी को रक्षा के सभी उत्तम उपायों से सम्पन्न किया गया था। कुरुश्रेष्ठ ! शत्रुओं का सामना करने में समर्थ गद, साम्ब और उद्धव आदि अनेक वीर नाना प्रकार के बहुसंख्यक रथों द्वारा पुरी की रक्षा में दत्तचित थे। जो अत्यन्त विख्यात कुलों में उत्पन्न थे तथा युद्ध के अवसरों पर जिनके बल-वीर्य का परिचय मिल चुका था, ऐसे वीर रक्षक मध्यम गुल्म( नगर के मध्यवर्ती दुर्ग ) में स्थित हो पुरी की पूर्णतः रक्षा कर रहे थे। सबको प्रमाद से बचाने वाले उग्रसेन और उद्धव आदि ने शत्रुओं के गुल्मों को नष्ट करने की शक्ति रखने वाले घुड़़सवारों के हाथ में झंडे देकर समूचे नगर में यह घोषणा करा दी थी कि किसी को भी मद्यपान नहीं करना चाहिये। क्योंकि मदिरा से उन्मत हुए लोगों पर राजा शाल्व घातक प्रहार कर सकता है। यह सोचकर वृष्णि और अन्धकवंश के सभी योद्धा पूरी सावधानी के साथ युद्ध में डटे हुए थे। धन संग्रह की रक्षा करने वाले यादवों ने आनर्त देशीय नटों, नर्तकों तथा गायों को शीघ्र ही नगर से बाहर कर दिया था। कुरुनन्दन ! द्वारकापुरी में आने के लिये जो पुल मार्ग में पड़ते थे, वे सब तोड़ दिये गये। नौकाएँ रोक दी गयी थीं और खाइयों में काँटे बिछा दिये गये थे। कुरुश्रेष्ठ ! द्वारकापुरी के चारों ओर एक कोस तक के चारों ओर के कुएँ इस प्रकार जलशून्य कर दिये गये थे मानो भाड़ हों और उतनी दूर की भूमि भी लौहकण्टक आदि से व्याप्त कर दी गयी थी। निष्पाप नरेश ! द्वारका एक तो स्वभाव से ही दुर्गम्य, सुरक्षित और अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न है, तथापि उस समय इसकी विशेष व्यवस्था कर दी गयी थी। भरतश्रेष्ठ ! द्वारका नगर इन्द्र भवन की भाँति ही सुरक्षित, सुगुप्त और सम्पूर्ण आयुधों से भरा-पूरा है। राजन् ! सौभनिवासियों के साथ युद्ध होते समय वृष्णि और अंधकवंशी वीरों के उस नगर में कोई भी राजमुद्रा ( पास ) के बिना न तो बाहर निकल सकता था और न बाहर से नगर के भीतर ही आ सकता था। कुरुनन्दन राजेन्द्र ! वहाँ प्रत्येक सड़क और चैराहे पर बहुत से हाथी सवार और घुड़सवारों से युक्त विशाल सेना उपस्थित रहती थी। महाबाहो ! उस समय सेना के प्रत्येक सैनिक को पूरा-पूरा वेतन और भत्ता चुका दिया गया था। सबको नये-नये हथियार और पोशाकें दी गयी थी और उन्हें विशेष पुरस्कार आदि देकर उनका उनका प्रेम और विश्राम प्राप्त कर लिया गया था। कोई भी सैनिक ऐसा नहीं था, जिसे सोने-चाँदी के सिवा ताँबा आदि के वेतन के रूप में दिया जाता हो अथवा जिसे समय पर वेतन न प्राप्त हुआ हो। किसी भी सैनिक को दयावश सेना में भर्ती नहीं किया गया था कोई भी ऐसा न था, जिसका पराक्रम बहुत दिनों से देखा न गया हो। कमलनयन राजन् ! जिसमे बहुत-से दक्ष मनुष्य निवास करते थे, उस द्वारका नगरी की रक्षा के लिये इस प्रकार की व्यवस्था की गयी थी। वह राजा उग्रसेन द्वारा भलीभाँति सुरक्षित थी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमन पर्व में सौभवधविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।। 15 ।।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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