महाभारत वन पर्व अध्याय 162 श्लोक 27-48
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द्विषष्टयधिकशततम (162) अध्याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! कुबेरकी कही हुई ये बातेसुनकर पाण्डवोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर भरतकुल-भूषण भीमसेनने उठायी हुई शक्ति, गदा, खंग, और धनुषको नीचे करके कुबेरको नमस्कार किया। तब शरण देनेवाले धनाध्यक्ष कुबेरने अपनी शरणमें आये हुए भीमसेनसे कहा- 'पाण्डुनन्दन! तुम शत्रुओंका मान मर्दन और सुहदोंका आनन्द वर्धन करनेवाले बनो। 'शत्रुओं को संताप देनेवाले भरतकुलभूषण पाण्डवों! तुम सब लोग अपने रमणीय आश्रमोंमें निवास करो। यक्ष लोग तुम्हारी अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति में बाधा नहीं डालोगे। 'निद्राविजयी अर्जुन अस्त्र-विद्या सीखकर साक्षात् इन्द्रके भेजनेपर शीघ्र ही यहां आवेंगे और तुम सब लोगोंसे मिलेंगे। इस प्रकार उत्तम कर्म करनेवाले युधिष्ठिरको उपदेश देकर यक्षराज कुबेर गिरिश्रेष्ठ कैलासको चले गये। उनके पीछे सहस्त्रों यक्ष और राक्षसको भी अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो चल दिये। उनके वे वाहन नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित थे और उनकी पीठपर बहुरंगे कम्बल आदि कसे हुए थे। जैसे इन्द्रपुरीके मार्गपर चलनेवाले विविध वाहनोंका कोलाहल सुनायी पड़ता हैं, उसी प्रकार कुबेरभवनके प्रति यात्रा करनेवाल उत्तम अश्वोंका शब्द ऐसा जान पड़ता था, मानो पक्षी उड़ रहे हों। धनाध्यक्ष कुबेरके वे घोड़े अपने साथ बादलोंको खींचते और वायुको पीते हुएसे तीव्र गतिसे आकाशमें उड़ चले। तदनन्तर कुबेरकी आज्ञासे राक्षसोंके वे निर्जीव शरीर उस पर्वत-शिखरसे दूर हटा दिये गये। बुद्धिमान् अगस्त्यने यक्षोंके लिये शापकी वही अवधि निश्चित की थी। जब वे युद्धमें मारे गये, तब उनके शापका अन्त हो गया। महामना पाण्डव अपने उन आश्रमोंमें सम्पूर्ण राक्षसोंसे पूजित एवं उद्वेग-शून्य होकर सुखसे रात्रि व्यतीत करने लगे।
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