महाभारत वन पर्व अध्याय 167 श्लोक 42-57

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सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! वास्तवमें वे भगवान् शंकर थे। उन्होंने पूर्वोक्त बर्ताव करके दूसरा रूपधारण कर लिया। देवताओंके स्वामी भगवान् महेश्वर किरातरूप छोड़कर दिव्य स्वरूपका आश्रय ले अलौकिक एवं अद्भुत वस्त्र धारण किये वहां खड़े हो गये। इस प्रकार उमासहित साक्षात् भगवान् वृषभध्वजका दर्शन हुआ। उन्होंने अपने अंगोंमें सर्प और हाथमें पिनाक धारण कर रखे थे। अनेक रूपधारी भगवान् शूलपाणि उस रणभूमिमें मेरे निकट आकर पूर्ववत् सामने खड़े हो गये और बोले- 'परंतप! मैं तुमपर संतुष्ट हूं'। तदनन्तर मेरे धनुष और अक्षय बाणोंसे भरे हुए दोनों तरकस लेकर भगवान् शिवने मुझे ही दे दिये और कहा-'परंतप! ये अपने अस्त्र ग्रहण करो।' कुन्तीकुमार! मैं तुमसे संतुष्ट हूं। बोलो, तुम्हारा कौनसा कार्य सिद्ध करूं ? वीर! तुम्हारे मनमें जो कामना हो, बताओ। मैं उसे पूर्ण कर दूंगा। अमरत्वको छोड़कर और तुम्हारे मनमें जो भी कामना हो, बताओ'। मेरा मन तो अस्त्र-शस्त्रोंमें लगा हुआ था। उस समय मैंने हाथ जोड़कर मन-ही-मन भगवान् शंकरको प्रणाम किया और यह बात कही-'यदि मुझपर भगवान् प्रसन्न हैं, तो मेरा दिव्यास्त्र हैं, उन्हें मैं जानना चाहता हूं।' यह सुनकर भगवान् शंकरने मुझसे कहा- पाण्डुनन्दन! मैं तुम्हें सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंकी प्राप्तिका वर देता हूं। 'पाण्डुकुमार! मेरा रौद्रास्त्र स्वयं तुम्हें प्राप्त हो जायगा।' यह कहकर भगवान् पशुपति ने बड़ी प्रसन्नताके साथ मुझे अपना महान् पाशुपतास्त्र प्रदान किया। अपना सनातन अस्त्र मुझे देकर महादेवजी फिर बोले- 'तुम्हें मनुष्योंपर किसी प्रकार इस अस्त्रका प्रयोग नहीं करना चाहिये। 'अपनेसे अल्पशक्तिवाले विपक्षीपर यदि इसका प्रहार किया जाय, तो यह सम्पूर्ण विश्वको दग्ध कर देगा। धनंजय! जब शत्रुके द्वारा अपनेको बहुत पीड़ा प्राप्त होने लगे, उस दशामें आत्मरक्षाके लिये इसका प्रयोग करना चाहिये। शत्रुके अस्त्रोंका विनाश करनेके लिये सर्वथा इसका प्रयोग उचित है'। इस प्रकार भगवान् वृषभध्वजके प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण अस्त्रोंका निवारण करनेवाला और कहीं भी कुण्ठित न होनेवाला दिव्य पाशुपतास्त्र मूर्तिमान् हो मेरे पास आकर खड़ा हो गया। वह शत्रुओंका संहारक और विपक्षियोंकी सेनाका विध्वंसक है। उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। देवता, दानव तथा राक्षस किसीके लिये भी उसका वेग सहन करना अत्यन्त कठिन है। फिर भगवान् शिवकी आज्ञा होनेपर मैं वहीं बैठ गया और वे मेरे देखते-देखते अन्तर्धान हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्ध पर्व में गन्धमादननिवासकालिक युधिष्ठिर-अर्जुनसंवादविषयक एक सौ सरसठवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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