"महाभारत वन पर्व अध्याय 176 श्लोक 1-15" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: षट्सप्ततयधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: षट्सप्ततयधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</div>
  

११:४१, १७ अगस्त २०१५ का अवतरण

षट्सप्ततयधिकशततम (176) अध्‍याय: वन पर्व (अजगर पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षट्सप्ततयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेनकी युधिष्ठिरसे बातचीत और पाण्डवोंका गन्धमादनसे प्रस्थान

जनमेजयने पूछा-भगवन् ! रथियोंमें श्रेष्ठ महावीर अर्जुन जब इन्द्रभवनसे दिव्यास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके लौट आये, तब उनसे मिलकर कुन्तीकुमारोंने पुनः कौनसा कार्य किया ? वैशम्पायनजी बोले-राजन् ! वे नरश्रेष्ठ वीर पाण्डव इन्द्रतुल्य पराक्रमी अर्जुनके साथ उस परम रमणीय शैलशिखरपर कुबेरकी क्रीड़ापूर्वक भूमिके अन्तर्गत उन्हीं वनोंमें सुखसे विहार करने लगे। वहां कुबेरके अनुपम भवन बने हुए थे। नानाप्रकारके वृक्षोंके निकट अनेक प्रकारके खेल होते रहते थे। उन सबको देखते हुए किरीटधारी अर्जुन बहुधा वहां विचरा करते और हाथमें धनुष लेकर सदा अस्त्रोंके अभ्यासमें संलग्न रहते थे। राजन् ! राजकुमार पाण्डवोंको राजाधिराज कुबेरकी कृपासे वहांका निवास प्राप्त हुआ था। वे वहां रहकर भूतलके अन्य प्राणियोंके ऐश्वर्य-सुखकी अभिलाषा नहीं रखते थे। उनका वह समय बड़े सुखसे बीत गया था। वे अर्जुनके साथ वहां चार वर्षोंतक रहे, परंतु उनको वह समय एक रातके समान ही प्रतीत हुआ। पहलेके छः वर्ष तथा वहांके चार वर्ष इस प्रकार सब मिलाकर पाण्डवोंके वनवासके दस वर्ष आनन्दपूर्वक बीत गये। तदनन्तर एक दिन अर्जुन तथा वीरवर नकुल-सहदेव जो देवराजके समान पराक्रमी थे, एकान्तमें राजा युधिष्ठिरके पास बैठे थे। उस समय वेगशाली वायुपुत्र भीमसेन यह हितकर एवं प्रिय वचन बोले। 'कुरूराज ! टापकी प्रतिज्ञाको सत्य करनेकी इच्छासे और आपका प्रिय करनेकी अभिलाषा रखनेके कारण हमलोग यह वनवास छोड़कर दुर्योधनका अनुचरोंसहित वध करने नहीं जा रहे हैं। 'अब हमारे निवासका यह ग्यारहवां वर्ष चल रहा है। हमलोग सुख भोगनेके अधिकारी थे परंतु दुर्योधनने हमारा सुख छीन लिया। उसकी बुद्धि तथा स्वभाव अत्यन्त अधम है। उस दुष्टको धोखा देकर हम अपने अज्ञातवास समय भी सुखपूर्वक बिता लेंगे। 'भूपशिरोमणे ! आपकी आज्ञासे हम मानापकामनका विचार छोड़कर निःशंक हो वनमें विचरते रहेंगे। पहले किसी निकटवर्ती स्थानमें रहकर दुर्योधन आदिके मनमें वहीं खोज करनेका लोभ उत्पन्न करेंगे और फिर वहांसे दूर देशमें चले जायेंगे, जिससे उन्हें हमारा पता न लग सकेगा। 'वहां एक वर्षतक गुप्तरूपसे निवास करके जब हम लौटेंगे, तब अनायास ही उस नराधमदुर्योधनकी जड़ उखाड़ देंगे। नरेन्द ! नीच दुर्योधन आज अपने अनुचरोंसे घिरकर सुखी हो रहा है। उसने जो वैरका वृक्ष लगा रखा है, उसे हम फूल-फलसा हित उखाड़ फेंकेगे और उससे वैरका बदला लेंगे। अतः धर्मराज ! आप यहांसे चलकर पृथ्वीपर निवास करें। नरदेव ! इसमें संदेह नहीं कि हमलोग इस स्वर्गतुल्य प्रदेशमें विचरते रहनेपर भी अपना सारा शोक अनायास ही निवृत कर सकते हैं। 'परंतु ऐसा होनेपर चराचर जगत्में आपकी पुण्यमयी कीर्ति नष्ट हो जायेगी। इसलिये कुरूवंशशिरोमणि अपने पूर्वजोंके उस महान् राज्यको प्राप्त करके ही हम और कोई सत्कर्म करने योग्य हो सकते हैं। भरतकुलभूषण महाराज ! आप कुबेरसे जो सम्मान या अनुग्रह प्राप्त कर रहे हैं, इसे तो सदा ही प्राप्त कर सकते हैं। इस समय तो अपराधी शत्रुओंको मारने और दण्ड देनेका निश्चय कीजिये। 'राजन् ! साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी आपसे भिड़कर आपके भयंकर तेजको नहीं सह सकते। धर्मराज ! आपका कार्य सिद्ध करनेके लिये दो वीर सदा प्रयत्न करते हैं ! ग्रूड़ध्वज भगवान् श्रीकृष्ण और शिनिके नाती वीरवर सात्यकि। ये दोनों आपके लिये देवताओंसे भी युद्ध करनेमें कभी कष्टका अनुभव नहीं करेंगे। नरदेवशिरोमणि ! इन्हीं दोनोंके समान अर्जुन भी बल और पराक्रममें अपना सानी नहीं रखते। इसी प्रकार मैं भी बलमें किसीसे कम नहीं हूं। जैसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण यादवोंके साथ आपके प्रत्येक कार्यकी सिद्धके लिये उद्यत रहते हैं, उसी प्रकार मैं, अर्जुन तथा अस्त्रोंके प्रयोगमें कुशल वीर नकुल-सहदेव भी आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये सदा संनद्ध रहा करते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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