महाभारत वन पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-20

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प्रथम अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व प्रथम अध्याय श्लोक 1-29
पाण्‍डवों का वनगमन, पुरवासियों द्वारा उनका अनुगमन और युधिष्ठिर के अनुरोध करने पर उनमें से बहुतों का लौटना तथा पाण्‍डवों का प्रमाणकोटितीर्थ में रात्रिवास

‘अन्‍तर्यामी नारायण स्‍वरूप भगवान श्री कृष्‍ण, (उनके नित्‍यसखा) नरस्‍वरूप नरश्रेष्‍ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्‍वती और (उन लीलाओें का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्‍यास को नमस्‍कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिए।
जनमेजय ने पूछा- विप्रवर! मन्त्रियों सहित धृतराष्‍ट्र के दुरात्‍मा पुत्रों ने जब इस प्रकार कष्‍ट पूर्वक कुन्‍ती कुमारों को जुए में हराकर कुपित कर दिया और घोर वैर की नींव डालते हुए उन्‍हें अत्‍यन्‍त कठोर बातें सुनायी, तब मेरे पूर्व पितामह युधिष्ठिर आदि कुरूवंशियों ने क्‍या किया? तथा जो सहसा ऐश्‍वर्य से वंचित हो जाने के कारण महान् दु:ख में पड़ गये थें, उन इन्‍द्र के तुल्‍य तेजस्‍वी पाण्‍डवों ने वन में किस प्रकार विचरण किया? उस भारी संकट में पड़े हुए पाण्‍डवों के साथ वन में कौन-कौन गये थे? वन में वे किस आचार-व्‍यवहार से रहते थे? क्‍या खाते थे और उन महात्‍माओं का निवास स्‍थान क्‍या था ? महामुने ! ब्राह्मण ! शत्रुओं का संहार करने वाले उन शूरवीर महारथियों के बारह वर्ष वन में किस प्रकार बीते? तपोधन ! संसार की समस्‍त सुन्‍दरियों में श्रेष्‍ठ, पवित्रता एवं सदा सत्‍य बोलने वाली वह महाभागा राजकुमारी द्रौपदी, जो दु:ख भोगने के योग्‍य कदापी नहीं थी, वनवास के भयंकर कष्‍ट को कैसे सह सकी? यह सब मुझे विस्‍तार पूर्वक बतलाइये। ब्राह्मण ! मैं आपके द्वारा कहे जाते हुए महान् पराक्रम और तेज से सम्‍पन्‍न पाण्‍डवों के चरित्र को सुनना चाहता हूँ। इसके लिए मेरे मन में अत्‍यन्‍त कौतूहल हो रहा है।
वैशम्‍पायनजी ने कहा- राजऩ् ! इस प्रकार मंत्रियों सहित दुरात्‍मा धृतराष्‍ट्र पुत्रों द्वारा जुए में पराजित करके क्रुद्ध किये हुए कुन्‍ती कुमार हस्‍तिनापुर से बाहर निकाले। वर्धमानपुर की दिशा में स्थित नगर द्वार से निकलकर शस्‍त्रधारी परण्‍डवों ने द्रौपदी के साथ उत्‍तराभिमुख होकर यात्रा आरम्‍भ की। इन्‍द्रसेन यदि चौदह से अधिक सेवक सारी स्त्रियों को शीघ्रगामी रथों पर बिठाकर उनके पीछे-पीछे चले। पाण्‍डव वन की ओर गये हैं, यह जानकर हस्‍तिनापुर के निवासी शोक से पीडित हो बिना किसी भय के भीष्‍म, विदुर, द्रोण और कृपाचार्य की बारंबार निंदा करते हुए एक-दूसरे से मिलकर इस प्रकार कहने लगे।
पुरवासी बोले- अहो ! हमारा यह समस्‍त कुल, हम तथा हमारे घर-द्वार अब सुरक्षित नहीं है ; क्‍योंकि यहाँ पापात्‍मा दुर्योधन सबल पुत्र शकुनि से पालित हो कर्ण और दु:शासन की सम्‍मति से इस राज्‍य का शासन करना चाहता है। जहाँ पापियों की ही सहायता से यह पापाचारी राज्‍य करना चाहता है, वहाँ हम लोगों के कुल,आचार,और अर्थ भी नहीं रह सकते,फिर सुख तो रह ही कैसे सकता है। दुर्योधन गुरुजनों से द्वेष रखने वाला है। उसने सदाचार और पाण्‍डवों जैसे सुह्रदकों को त्‍याग दिया है। वह अर्थलोलुप, अभिमानी, नीच और स्‍वभावत: ही निष्‍ठुर है। जहाँ दुर्योधन राजा है, वहाँ की सारी पृथ्‍वी नहीं के बराबर है, अत: यही ठीक होगा कि हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ पाण्‍डव जा रहे हैं। पाण्‍डवगण दयालु, महात्‍मा, जितेन्द्रिय, शत्रुविजयी, लज्‍जाशील, यशस्‍वी, धर्मात्‍मा तथा सदाचार परायण हैं।
वैशम्‍पायनजी कहते हैं – ऐसा कहकर वे पुरवासी पाण्‍डवों के पास गये और उन कुन्‍ती कुमारों तथा माद्री पुत्रों से मिलकर वे सबके- सब हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले- ‘पाण्‍डवों ! आप लागों का कल्‍याण हो। हम आप के वियोग से बहुत दु:खी हैं। आप लोग हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हैं? आप जहाँ जायेंगे, वहीं हम भी आप के साथ चलेंगे।‘निर्दयी शत्रुओं ने आप को अधर्म पूर्वक जूए में हराया है, यह सुनकर हम सब लोग अत्‍यन्‍त उद्विग्‍न हो उठे हैं। आप लोग हमारा त्‍याग न करें; क्‍योंकि हम आपके सेवक हैं, प्रेमी हैं, सुह्रद् हैं और सदा आपके प्रिय एवं हित में संलग्‍न रहने वाले हैं। आपके बिना दस दुष्‍ट राजा के राज्‍य में रहकर हम नष्‍ट होना नहीं चाहते। ‘नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों ! शुभ और अशुभ आश्रय में रहने पर वहाँ का संसर्ग मनुष्‍य में गुण दोषों की सृष्टि करता है, उनका हम वर्णन करते हैं,सुनिये। ‘जैसे फूलों के संसर्ग में रहने पर उनकी सुगंध वस्‍त्र, जल, तिल और भूमि को सुवासित कर देती है,उसी प्रकार संसर्गजति गुण भी अपना प्रभाव डालते हैं। मूढ मनुष्‍यों से मिलना-जुलना मोहजाल की उत्‍पत्ति का कारण होता है। इसी प्रकार साधु महात्‍माओं का संग करना प्रतिदिन धर्म की प्राप्ति कराने वाला है। ‘इसलिए विद्वानों, वृद्ध पुरूषों तथा उत्‍तम स्‍वभाव वाले शान्ति परायण तपस्‍वी सत्‍पुरूषों का संग करना चाहिये।‘जिन पुरूषों के विद्या, जाति और कर्म-ये तीनों उज्‍जवल हों, उनका सेवन करना चाहिए; क्‍योंकि उन महापुरूषों के साथ बैठना शास्‍त्रों के स्‍वध्‍याय से भी बढ़कर है। हम लोग अग्नि- होत्र आदि शुभ कर्मों का अनुष्‍ठान नहीं करते, तो भी पुण्‍यात्‍मा साधु पुरूषों के समुदाय में रहने से हमें पुण्‍य की ही प्राप्ति होगी। इसी प्रकार पापी जनों के सेवन से हम पापके ही भागी होंगें।‘दुष्‍ट मनुष्‍यों के दर्शन, स्‍पर्श, उनके साथ वार्तालाप अथवा उठने-बैठने से धार्मिक आचारों की ज्ञानि होती है। इसलिए वैसे मनुष्‍यों को कभी सिद्धि प्राप्‍त नहीं होती।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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