"महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 18-37" के अवतरणों में अंतर

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== तीसवाँ अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)==
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==त्रिंशो (30) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत वनपर्व अध्याय 30 श्लोक 26- 42 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: त्रिंशो अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
सूत में पिरोयी हुई मणि, नाक में नथे हुए बैल और किनारे से टूटकर बीच में गिरे हुए वृक्ष की भाँति यह सदा ईश्वर के आदेश का ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसी से व्याप्त और उसी के अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समय को नहीं बिताता। यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख दुःख के विधान में भी असमर्थ है। यह ईश्वर से प्ररित होकर ही स्वर्ग एवं नरक में जाता है। भारत ! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान् वायु के वश में हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वर के अधीन हो आवागमन करते हैं। कोई श्रेष्ठ कर्म में लगा हुआ हो चाहे पापकर्म में, ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता। यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वर का साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियों से स्वेच्छाप्रारब्ध रूप शुभाशुभ फल भुगताने वाले कर्मों का अनुष्ठान करवाते हैं। तत्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं; किंतु अज्ञानियों के सामने किसी और रूप में भासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्य की किरणें मरुभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं को भिन्न-भिन्न रूपों में मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूप में बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। महाराज युधिष्ठिर ! जैसे अचेतन एवं चेष्टरहित काठ, पत्थर और लोहे को मनुष्य काठ, पत्थर और लोहे से ही काट देता है, उसी प्रकार सबके प्रपितामह स्वयम्भू भगवान श्री हरि माया की आड़ लेकर प्राणियों से ही प्राणियों का विनाश करते हैं। जैसे बालक खिलौना खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म ( भाँति-भाँति की लीलाएँ ) करने वाले शक्तिशाली भगवान सब प्राणियों के साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं। राजन् ! मैं समझती हूँ, ईश्वर समस्त प्राणियों के प्रति माता-पिता के समान दया एवं स्नेहयुक्त बर्ताव नहीं कर रहे हैं, वे तो दूसरे लोगों की भाँति मानो रोष से ही व्यवहार कर रहे हैं। क्योंकि जो लोग श्रेष्ठ, शीलवान और संकोची हैं, वे तो जीविका के लिये कष्ट पा रहे हैं; किन्तु जो अनार्य ( दुष्ट ) हैं, वे सुख भोगते हैं; यह सब देखकर मेरी उक्त धारणा पुष्ट होती है और मैं चिन्ता से विहल-सी हो रही हूँ। कुन्तीनन्दन ! आपकी इस आपत्ति का तथा दुर्योधन की समृद्धि को देखकर मैं उस विधाता की निन्दा करता हूँ, जो विषम दृष्टि से देख रहा है अर्थात् सज्जन को दुःख और दुर्जन का सुख देकर उचित विचार नहीं कर रहा है।
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परंतु महाराज ! उस कपट द्यूत जनित पराजय के समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयों और  मुझे भी दाँव पर रखकर  हार गये। आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील, और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धि में जुआ खेलने का व्यसन आ गया। आपके इस दुःख और भयंकर विपत्ति को विचार कर अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःख से पीडित हो रहा है। इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है। विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मों के अनुसार प्राणियों के लिये सुख- दुःख, प्रिय- अप्रिय की व्यवस्था करते हैं। नरवीर नरेश ! जैसे कठपुतली सूत्राधार से प्रेरित हो अपने अंगो का संचालन करती है, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वर की प्रेरणा से अपने हस्त-पाद आदि अंगों द्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं। भारत ! ईश्वर आकाश के समान सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःख का विधान करते हैं।जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरे में बँधे हुए पक्षी की भाँति कर्म के बन्धन में बँधा होने से परतन्त्र है। वह ईश्वर के ही वश में होता है। उसका न तो दूसरों पर वश चलता है, न अपने ऊपर।
जो आर्य शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला, क्रूर, लोभी तथा धर्म की हानि करने वाला है, उस धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को धन देकर विधाता क्या फल पाता है? यदि किया हुआ कर्म कर्ता का ही पीछा करता है, दूसरे के पास नहीं जाता,तब तो ईश्वर भी उस पापकर्म से अवश्य लिप्त होंगे। इसके विपरीत, यदि किया हुआ पाप-कर्म कर्ता को नहीं प्राप्त होता तो इसका कारण यहाँ बल ही है ( ईश्वर शक्तिशाली हैं, इसीलिये उन्हें पापकर्म का फल नहीं मिलता होगा )। उस दशा में मुझे दुर्बल मनुष्यों के लिये शोक हो रहा है।
 
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत  वनपर्व  के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदीवाक्यविषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
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सूत में पिरोयी हुई मणि, नाक में नथे हुए बैल और किनारे से टूटकर बीच में गिरे हुए वृक्ष की भाँति यह सदा ईश्वर के आदेश का ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसी से व्याप्त और उसी के अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समय को नहीं बिताता। यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख- दुःख के विधान में भी असमर्थ है। यह ईश्वर से प्ररित होकर ही स्वर्ग एवं नरक में जाता है। भारत ! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान वायु के वश में हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वर के अधीन हो आवागमन करते हैं। कोई श्रेष्ठ कर्म में लगा हुआ हो चाहे पापकर्म में, ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं। इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता। यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वर का साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियों से स्वेच्छाप्रारब्ध रूप शुभाशुभ फल भुगताने वाले कर्मों का अनुष्ठान करवाते हैं। तत्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं; किंतु अज्ञानियों के सामने किसी और रूप में आभासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्य की किरणें मरुभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं को भिन्न-भिन्न रूपों में मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूप में बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। महाराज युधिष्ठिर ! जैसे अचेतन एवं चेष्टरहित काठ, पत्थर और लोहे को मनुष्य काठ, पत्थर और लोहे से ही काट देता है, उसी प्रकार सबके पितामह स्वयम्भू भगवान श्री हरि माया की आड़ लेकर प्राणियों से ही प्राणियों का विनाश करते हैं। जैसे बालक खिलौना खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म ( भाँति-भाँति की लीलाएँ ) करने वाले शक्तिशाली भगवान सब प्राणियों के साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं।
  
 
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-17|अगला=महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 38-42}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत वनपर्व अध्याय 30 श्लोक 1- 25|अगला=महाभारत वनपर्व अध्याय 31 श्लोक 1- }}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत वनपर्व]]
 
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१३:४८, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

त्रिंशो (30) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: त्रिंशो अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद

परंतु महाराज ! उस कपट द्यूत जनित पराजय के समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयों और मुझे भी दाँव पर रखकर हार गये। आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील, और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धि में जुआ खेलने का व्यसन आ गया। आपके इस दुःख और भयंकर विपत्ति को विचार कर अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःख से पीडित हो रहा है। इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है। विधाता ईश्वर ही सबके पूर्वकर्मों के अनुसार प्राणियों के लिये सुख- दुःख, प्रिय- अप्रिय की व्यवस्था करते हैं। नरवीर नरेश ! जैसे कठपुतली सूत्राधार से प्रेरित हो अपने अंगो का संचालन करती है, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वर की प्रेरणा से अपने हस्त-पाद आदि अंगों द्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं। भारत ! ईश्वर आकाश के समान सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःख का विधान करते हैं।जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरे में बँधे हुए पक्षी की भाँति कर्म के बन्धन में बँधा होने से परतन्त्र है। वह ईश्वर के ही वश में होता है। उसका न तो दूसरों पर वश चलता है, न अपने ऊपर।

सूत में पिरोयी हुई मणि, नाक में नथे हुए बैल और किनारे से टूटकर बीच में गिरे हुए वृक्ष की भाँति यह सदा ईश्वर के आदेश का ही अनुसरण करता है; क्योंकि वह उसी से व्याप्त और उसी के अधीन है। यह मनुष्य स्वाधीन होकर समय को नहीं बिताता। यह जीव अज्ञानी तथा अपने सुख- दुःख के विधान में भी असमर्थ है। यह ईश्वर से प्ररित होकर ही स्वर्ग एवं नरक में जाता है। भारत ! जैसे क्षुद्र तिनके बलवान वायु के वश में हो उड़ते-फिरते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणी ईश्वर के अधीन हो आवागमन करते हैं। कोई श्रेष्ठ कर्म में लगा हुआ हो चाहे पापकर्म में, ईश्वर सभी प्राणियों में व्याप्त होकर विचरते हैं; किंतु वे यही हैं। इस प्रकार उनका लक्ष्य नहीं होता। यह क्षेत्रसंज्ञक शरीर ईश्वर का साधनमात्र है, जिसके द्वारा वे सर्वव्यापी परमेश्वर प्राणियों से स्वेच्छाप्रारब्ध रूप शुभाशुभ फल भुगताने वाले कर्मों का अनुष्ठान करवाते हैं। तत्वदर्शी मुनियों ने वस्तुओं के स्वरूप कुछ और प्रकार से देखे हैं; किंतु अज्ञानियों के सामने किसी और रूप में आभासित होते हैं। जैसे आकाशचारी सूर्य की किरणें मरुभूमि में पड़कर जल के रूप में प्रतीत होने लगती हैं। लोग भिन्न-भिन्न वस्तुओं को भिन्न-भिन्न रूपों में मानते हैं; परंतु शक्तिशाली परमेश्वर उन्हें और ही रूप में बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। महाराज युधिष्ठिर ! जैसे अचेतन एवं चेष्टरहित काठ, पत्थर और लोहे को मनुष्य काठ, पत्थर और लोहे से ही काट देता है, उसी प्रकार सबके पितामह स्वयम्भू भगवान श्री हरि माया की आड़ लेकर प्राणियों से ही प्राणियों का विनाश करते हैं। जैसे बालक खिलौना खेलता है, उसी प्रकार स्वेच्छानुसार कर्म ( भाँति-भाँति की लीलाएँ ) करने वाले शक्तिशाली भगवान सब प्राणियों के साथ उनका परस्पर संयोग-वियोग कराते हुए लीला करते रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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