"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 123 श्लोक 11-25": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 11-25 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
इस विषय में जानकार लोग राजा आंगरिष्ठ और कामन्दक मुनि का संवादरुप प्राचीन इतिहास सुनाया करते हैं। एक समय कीबात है, कामन्दक ॠषि अपने आश्रम में बैठे थे। उन्हें प्रणाम करके राजा आंगरिष्ठ ने प्रश्न के उपयुक्त समय देखकर पूछा- ‘महर्षे ! यदि कोइ राजा काम और मोह के वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किंतु फिर उसे पश्चाताप होने लगे तो उसके उस पाप को दूर करने के लिये कौन-सा प्रायश्चित है? | इस विषय में जानकार लोग राजा आंगरिष्ठ और कामन्दक मुनि का संवादरुप प्राचीन इतिहास सुनाया करते हैं। एक समय कीबात है, कामन्दक ॠषि अपने आश्रम में बैठे थे। उन्हें प्रणाम करके राजा आंगरिष्ठ ने प्रश्न के उपयुक्त समय देखकर पूछा- ‘महर्षे ! यदि कोइ राजा काम और मोह के वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किंतु फिर उसे पश्चाताप होने लगे तो उसके उस पाप को दूर करने के लिये कौन-सा प्रायश्चित है? |
०८:३८, १८ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
त्रयोविंशत्यधिकशततम(123) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
इस विषय में जानकार लोग राजा आंगरिष्ठ और कामन्दक मुनि का संवादरुप प्राचीन इतिहास सुनाया करते हैं। एक समय कीबात है, कामन्दक ॠषि अपने आश्रम में बैठे थे। उन्हें प्रणाम करके राजा आंगरिष्ठ ने प्रश्न के उपयुक्त समय देखकर पूछा- ‘महर्षे ! यदि कोइ राजा काम और मोह के वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किंतु फिर उसे पश्चाताप होने लगे तो उसके उस पाप को दूर करने के लिये कौन-सा प्रायश्चित है?
कामन्दक उवाच कामन्दक ने कहा-राजन् ! जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके केवल काम काही सेवन करता है, उन दोनों के त्याग से उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। बुद्धि का नाश ही मोह है। वह धर्म और अर्थ दोनो का विनाश करनेवाला है। इससे मनुष्य में नास्तिकता आती हैं और वह दुराचारी हो जाता है। जब राजा दुष्टों और दुराचारियों को दण्ड देकर काबू में नहीं करता हैं, तब सारी प्रजा घर में रहनेवाले सर्पकी भांति उस राजा से उद्विग्न हो उठती है। उस दशा मे प्रजा उसका साथ नहीं देती। साधु और ब्राह्मण भी उसका अनुसरण नहीं करते है। फिर तो उसका जीवन खतरे में पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा वह प्रजा के ही हाथ से मारा भी जाता है। वह अपने पद से भ्रष्ट और अपमानित होकर दु:खमय जीवन बीताता है।
यदि पदभ्रष्ट होकर भी वह जीता है तो वह जीवन भी स्पष्टरुप में मरण ही है। इस अवस्था में आचार्यगण उसके लिये यह कर्तव्य बतलाते हैं कि वह अपने पापों की निन्दा करे, वेदों का निरन्तर स्वाध्याय करे और ब्राह्मणों का सत्कार करें। धर्माचरण में विशेष मन लगावे। उतम कुल में विवाह करे।उदार एवं क्षमाशील ब्रह्मणों की सेवा में रहे।। वह जल में खड़ा होकर गायत्री का जप करे। सदा प्रसन्न रहे। पापियों को राज्य से बाहर निकालकर धर्मात्मा पुरुषों का संग करे। मीठी वाणी तथा उतम कर्म के द्वारा सबको प्रसन्न रखें, दूसरों के गुणों का बखान करे और सबसे यही कहे-मैं आपको ही हूं-आप मुझे अपना ही समझें। जो राजा इस प्रकार अपना आचरण बना लेता हैं, वह शीघ्र ही निष्पाप होकर सबके सम्मान का पात्र बन जाता है। वह अपने कठिन-से-कठिन पापों को भी शान्त (नष्ट) कर देता है-इसमें संशय नहीं हैं। राजन् ! गुरुजन तुम्हारे लिये जिस उतम धर्म का उपदेश करें, उसका उसी रुप में पालन करो। गुरुजनों की कृपा से तुमपरम कल्याण के भागी होओगे ।
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