महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 3
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द्वाविंशत्यधिकद्विशततम (222) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जो उस सर्वस्वरूप परमेश्वर को जानता है, वह न तो भयभीत होता है और न कहीं जाता है । मैं कहॉ हॅू ? किस-किस साधन से कार्य करता हॅू ? इत्यादि विचारों में न पड़कर परमात्मा को अनुभव करता हैं । वह परमात्मा युग-युग में व्यापक है । वह जडात्मक प्रपंच से अत्यन्त भिन्न रूप में पृथक् स्थित है । उस परमात्मा से भिन्न जो कोई भी जड वस्तु है, उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है । जैसे वायु एक होकर भी अनेक रूपों में संचरित होता है । पक्षी, मृग, व्याघ्र और मनुष्य में तथा वेणु में यथार्थ रूप से स्थित होकर एक ही वायु के भिन्न-भिन्न स्वरूप हो जाते हैं । जो आत्मा है वही परमात्मा है; परंतु वह जीवात्मा से भिन्न सा जान पड़ता है । इस प्रकार वह आत्मा ही परमात्मा है । वही जाता है, वह आत्मा ही सबको देखता है, सबकी बातें सुनता है, सभी गंधो को सॅूघता है और सबसे बातचीत करता है ।
सूर्यदवे के चक्र में सब ओर दस-दस किरणें हैं, जो वहॉ से निकलकर महात्मा भगवान् सूर्य के पीछे-पीछे चलतीं हैं । सूर्यदेव प्रतिदिन अस्त होते और पुन: पूर्व दिशा में उदित होते है; परंतु वे उदय और अस्त दोनों ही सूर्यमें नहीं है । इसी प्रकार शरीर के अन्तर्गत अन्तर्यामीरूप से जो भगवान् नारायण विराजमान हैं, उनको जानो (उसमें शरीर और अशरीरभाव सूर्य में उदय-अस्त की ही भॉति कल्पित हैं) ।
विप्रवरो ! आप लोगों को गिरते-पड़ते, चलते-फिरते और खाते-पीते प्रत्येक कार्य के समय, ऊपर-नीचे आदि प्रत्येक देश और दिशा में एकमात्र भगवान् नारायण सर्वत्र विराज रहे हैं – ऐसा अनुभव करना चाहिये । उनका दिव्य सुवर्णमय धाम ही परमपद जानना चाहिये, उसे पाकर जीवन कृतार्थ हो जाता है । वह स्वयं ही अपना प्रकाशक और स्वयं ही अपने-आप में अन्तर्यामी आत्मा है । भौंरा पहले रस का संचय कर लेता है तब फूल के चारों और चक्कर लगाने लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञानी पुरूष देहाभिमानी जैसा बनकर लोकसंग्रह के लिये सब विषयों का अनुभव करता है वह न तो मोह में पड़ता है और न क्षीण ही होता है । कोई भी उस परमात्मा को अपने चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकता । अन्त:करण मे स्थित निर्मल बुद्धि के द्वारा ही उसके रूप को ज्ञानी पुरूष देख पाता है । उस परमात्मा का मन्त्र द्वारा यजन किया जाता है तथा श्रेष्ठ द्विज ही उसका यजन करता है । वह अमृतस्वरूप परमात्मा न धर्मी है, न अधर्मी । वह द्वन्द्वों से अतीत और ईर्ष्या द्वेष से शून्य है । इसमे संदेह नहीं कि कि वह ज्ञान से परितृप्त होकर सुखपूर्वक सोता है ।। तथा ये भगवान् अपनी माया द्वारा जगत् की सृष्टि करते हैं । जिसका हृदय मोह से आच्छन्न है वह अपने कारणभूत परमात्मा को नहीं जानता । वही ध्यान, दर्शन, मनन और देखी हुई वस्तुओं का बोध प्राप्त करनेवाला है । सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति करनेवाले उस अनन्त परमात्मा को कौन जान सकता है ? मुनिवरो ! मुझसे जहॉ तक हो सकता था मैंने इसका स्वरूप बता दिया । अब आपलोग जाइये । भीष्म जी कहते हैं – राजन् ! इस प्रकार ज्ञान के समुद्र की उत्पत्ति के कारणभूत मनोहर आकृतिवाले सनत्कुमार को प्रणाम करके उनका दर्शन करने के पश्चात् वे सब ऋषि मुनि वहॉ से चले गये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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