"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 31-41" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः (13) == <div style="text-align:center; direction: ltr; ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति १२: पंक्ति १२:
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{श्रीमद्भागवत महापुराण}}
 
{{श्रीमद्भागवत महापुराण}}
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:श्रीमद्भागवत महापुराण]][[Category:श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध]]
+
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:श्रीमद्भागवत महापुराण]][[Category:श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__
 
<br />
 
<br />

१०:५२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः (13)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद

फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो। तात! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफ़ेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान् को देखकर ब्रम्हा, मरीचि आदि को निश्चय को हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे। ऋषियों ने कहा—भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपसे पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है। देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रम्हा—इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग)—में स्त्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्त्रुवा है, उदार में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रम्ह भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है।
भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरुप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ( हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसभ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं। देव! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठान रूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं। समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरुप हैं; आपको नमसकर है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरुप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-