"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-10" के अवतरणों में अंतर

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११:०३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

ब्रम्हाजी द्वारा भगवान् की स्तुति

ब्रम्हाजी ने कहा—आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरुप को नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरुपतः सत्य नहीं है, क्योंकि माया के गुणों के क्षुभित होने के कारण केवल आप ही अनेकों रूपों में प्रतीत हो रहे हैं। देव! आपकी चित्त शक्ति के प्रकाशित रहने के कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभिकमल से मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारों का मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है। परमात्मन्! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरुप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्व की रचना करने वाले होने पर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूप की ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियों का भी अधिष्ठान है। हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हित के लिये ही मुझे ध्यान में अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूप में बार-बार नमस्कार करता हूँ। मेरे स्वामी! जो लोग वेद रूप वायु से लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनों के ह्रदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्ति रूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं।
जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होने वाले, भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं-मेरेपन का दुराग्रह रहता है, जो दुःख का एकमात्र का कारण है। जो लोग सब प्रकार के अमंगलों को नष्ट करने वाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसंगों से इन्द्रियों को हटाकर लेशमात्र विषय-सुख के लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारों की बुद्धि दैव ने हर ली है। अच्युत! उरुक्रम! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गरमी, हवा और वर्षा से, परसपर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दुःसह क्रोध से बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है। स्वामिन्! जब तक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी माया के प्रभाव से आपसे अपने को भिन्न देखता है, तब तक उसके लिये इस संसार चक्र की निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्म फल भोग का क्षेत्र होने के कारण उसे नाना प्रकार के दुःखों में डालता रहता है। देव! औरों की तो बात ही क्या—जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथा प्रसंग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिन में अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रा में अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षण में उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैवदेश उनकी अर्थ सिद्धि के सा उद्दोग भी विफल होते रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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