श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 20-33

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तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश—पाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयंकर तरंगमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्त विग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्प की कर्म परम्परा से श्रमित हुए जीवों को विश्राम देने के लिये ही हैं। आपके नाभिकमल रूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचना रूप उपकारों में प्रवृत्त हुआ हूँ। इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जाने के कारण आपके नेत्रकमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं। अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्व को आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करें—जिससे मैं पूर्वकल्प के समान इस समय भी जगत् की रचना कर सकूँ। आप भक्तवांछाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत् की रचना करने का उद्दम भी उन्हीं में से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें—शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टि रचना विषयक अभिमान रूप मल से दूर रह सकूँ। प्रभो! इस प्रलयकालीन जल में शयन करते हुए आप अनन्त शक्ति परमपुरुष के नाभिकमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी विज्ञान शक्ति; अतः इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेद रूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्र कमल खोलिये और शेष शय्या से उठकर विश्व के उद्धव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! इस प्रकार तप, विद्या और समाधि के द्वारा अपने उत्पत्ति स्थान श्रीभगवान् को देखकर तथा अपने मन और वाणी की शक्ति के अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रम्हाजी थके-से होकर मौन हो गये। श्रीमधुसूदन भगवान् ने देखा कि ब्रम्हाजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोक रचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्राय को जानकर वे अपनी गम्भीर वाणी से उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा—वेदगर्भ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टि रचना के उद्दम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ। तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञान का अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकों को स्पष्टतया अपने अन्तःकरण में देखो। फिर भक्तियुक्त और समाहित चित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे। जिस समय जीव काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान समस्त भूतों में मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मल से मुक्त हो जाता है। जब वह अपने को भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित तथा स्वरुपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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