सरयू नदी

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

सरयू इस पुण्यसलिला नदी का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है। उसके मंडल 4।30।18 से विदित होता है कि इसके तट पर 'अर्ण' और 'चित्ररथ' नामक दो नृपतियों की राजधानियाँ थी। वे दोनों ही प्रजापालक एव न्यायप्रिय राजा थे। अत: ऋषियों ने उनके प्रति मंगलकामना प्रकट की है। ऋग्वेद के मं. 5।53।9 तथा मं. 10।64।9 में कहा है कि इसके शांत एवं पुनीत तट पर बैठकर ऋषि लोग तत्वचिंतन एवं यज्ञादि धर्मानुष्ठान किया करते थे। महाभारत में भी अनेक स्थलों पर पुण्यसरित्‌ सरयू का उल्लेख है। वाल्मीकि ने रामायण में सरयू को अनेक स्थलों पर वर्णन का विषय बनाया है। इसके रम्य तट पर स्थित अयोध्यापुरी सूर्यवंशी नृपतियों की राजधानी रही है। महाराज दशरथ तथा राम के राजत्वकाल में इसका गौरव विशेष परिवर्धित हो गया था। महाराज सगर, रघु तथा राम ने इसके तट पर अनेक अश्वमेघ यज्ञ किए थे। श्रीराम के अनुज कुमार लक्ष्मण ने सरयू में ही अनंतरूप में शरीरत्याग किया था। यह अतिशय दु:खद समाचार सुनकर श्रीराम ने भी इस नदी के ही माध्यम से साकेतधाम अपनाया था। इन प्राचीन ग्रंथों के उल्लेख से पता चलता है कि यह अत्यंत प्राचीन नदी है।

हरिवंशपुराण में भी इसकी पुण्यगाथा गाई गई है। कालिका पुराण में कहा गया है कि सुवर्णमय मानसगिरि पर जब अरुंधती के साथ ऋषिवर्य वशिष्ठ का विवाह हुआ तब संकल्प एवं पूजन का जल तथा शांतिसलिल पहले पर्वत की कंदरा में प्रविष्ठ हुआ। तत्पश्चात्‌ वह मात भागों में विभक्त होकर गिरिकंदरा, गिरिशिखर और सरोवर में होता हुआ सात सरिताओं के आकार में प्रवाहित हुआ। जो जल हंसावतार के पास की कंदरा में जा गिरा उससे सर्वकल्मषहारिषणी मंगलमयी सरयू का उद्भव हुआ। वहाँ कहा गया है कि यह नदी दक्षिण सिंधुगामिनी और चिरस्थायिनी है। जो फल किसी व्यक्ति को गंगास्नान से मिलता है वही फल इसमें मज्जन से प्राप्त होता है। इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करनेवाली कहा गया है।

सरयू हिमाचल से निकलकर नेपाल से आगे बढ़ती है। वहाँ प्रारंभ में इसका नाम 'कोरियाला' है। पर्वत की अधित्यका में आने पर अनेक नदियाँ इसमें या मिली हैं। भूपृष्ठ पर पहुँचकर यह दो भागों में विभक्त हो गई है। पश्चिमवाहिनी का नाम 'कोरियाला' तथा पूर्ववाहिनी का नाम गिरबा नदी है। ये दोनों ही शाखाएँ और नीचे उतरकर एक दूसरी से मिल गई हैं। खीरी और भड़ौच से आगे कटाईघाट तथा ब्रह्मघाट के पास क्रमश: चौका और दहाबाड़ नामक दो नदियाँ इसमें आ मिली है। इसके पश्चात्‌ इसका नाम 'घर्घरा' या 'घाघरा' पड़ गया है। उत्तर में गोंडा, दक्षिण में बाराबंकी तथा फैजाबाद और पश्चिम में अयोध्या का छोड़ती हुई यह नदी दक्षिण और पूर्व की ओर बढ़ गई है। फिर यह उत्तर में बस्ती तथा गोरखपुर और दक्षिण में आजमगढ़ को छोड़ती है। पहले गोरखपुर जिले में 'कुआनो' नदी इसमें मिली है, आगे चलकर राप्ती और मुचोरा नदियाँ आ मिली हैं। यह नदी अपना मार्ग कभी उत्तर और कभी दक्षिण की ओर बदलती रहती है, जिसके चिह्न बराबर मिलते हैं। सन्‌ 1600 ई. में विशाल बाढ़ आई थी जिससे गोंडा जिले का 'खुराशा' नगर धारा में बह गया था।

संस्कृत में इसका नाम 'सरयू' भी मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसकी महिमा का बहुलांश: आख्यान किया है। भगवान्‌ राम लंकाविजय से लौटते समय अपने यूथपति वीरों से इसी प्रशंसा करते हुए कहते हैं -

       जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि।
       उत्तर दिसि वह सरजू पावनि।।
       जा मज्जन ते विनहिं प्रयासा।
       मम समीप नर पावहिँ वासा।।-उत्तरकांड, 4।4



टीका टिप्पणी और संदर्भ