सर्वोदय

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सर्वोदय अंग्रेज लेखक रस्किन की एक पुस्तक है- 'अनटू दिस लास्ट'- इस अंतवाले को भी। इस पुस्तक में मुख्य: तीन बातें बताई गई हैं-

(1) व्यक्ति का श्रेय समष्टि के श्रेय में निहित है।

(2) वकील का काम हो या नाई का, दोनों का मूल्य समान ही है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवसाय द्वारा आजीविका चलाने का समान अधिकार है।

(3) मजदूर, किसान और कारीगर का जीवन ही सच्चा और सर्वोत्कृष्ट जीवन है।

इस पुस्तक के नाम का आधार बाईबिल की एक कहानी है। अंगूर के एक बाग के मालिक ने अपने बाग में काम करने के लिए कुछ मजदूर रखे। मजदूरी तय हुई एक पेनी रोज। दोपहर को ओर तीसरे पहर शाम को जो बेकार मजदूर मालिक के पास आए, उन्हें भी उसने काम पर लगा दिया। काम समाप्त होने पर सबको एक पेनी मजदूरी दी, जितनी सुबहवाले को, उतनी ही शामवाले को। इसपर कुछ मजदूरों ने शिकायत की, तो मालिक ने कहा, मैंने तुम्हारे प्रति कोई अन्याय तो किया नहीं। क्या तुमने एक पेनी रोज पर काम मंजूर नहीं किया था। तब अपनी मजदूरी ले लो और घर जाओ। मैं अंतवाले को भी उतनी ही मजदूरी दूँगा, जितनी पहलेवाले को।

सुबहवाले को जितना, शामवाले को भी उतना ही-प्रथम व्यक्ति को जितना, अंतिम व्यक्ति को भी उतना ही, इसमें समानता और अद्वैत का वह तत्व समाया है, जिसपर सर्वोदय का विशाल प्रासाद खड़ा है (दादाधर्माधिकारी-'सर्वोदय दर्शन')

रस्किन की इस पुस्तक का गांधी जी ने गुजराती में अनुवाद किया 'सर्वोदय' के नाम से। सर्वोदय अर्थात्‌ सबका उदय, सबका विकास। सर्वोदय भारत का पुराना आदर्श है। हमारे ऋषियों ने गाया है-'सर्वेपि सुखिन: संतु'। सर्वोदय शब्द भी नया नहीं है। जैन मुनि समंतभद्र कहते हैं-सर्वापदामंतकरं निरंतं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव'। 'सर्व खल्विदं ब्रह्म', 'वसुधैव कुटुंबकं', अथवा 'सोऽहम्‌' और 'तत्त्वमसि' के हमारे पुरातन आदर्शों में 'सर्वोदय' के सिद्धांत अंतर्निहित हैं।

'सर्वोदय' का आदर्श है अद्वैत और उसकी नीति है समन्वय। मानवकृत विषमता का वह अंत करना चाहता है और प्राकृतिक विषमता को घटाना चाहता है। जीवमात्र के लिए समादर और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहानुभूति ही सर्वोदय का मार्ग है। जीवमात्र के लिए सहानुभति का यह अपूत जब जीवन में प्रवाहित होता है, तब सर्वोदय की लता में सुरभिपूर्ण सुमन खिलते हैं। डार्विन ने कहा-'प्रकृति का नियम है, बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर जीवित रहती है।' हक्सले ने कहा-जीओ और जीने दो।' सर्वोदय कहता है-'तुम दूसरों को जिलाने के लिए जीओ।' दूसरों को अपना बनाने के लिए प्रेम का विस्तार करना होगा, अहिंसा का विकास करना होगा और शोषण को समाप्त कर आज के सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन करना होगा।'

'सर्वोदय' ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। विनोबा कहते हैं-'जब हम सर्वोदय का विचार करते हैं, तब ऊँच-नीच भावशाली वर्णव्यवस्था दीवार की तरह समाने खड़ी हो जाती है। उसे तोड़े बिना सर्वोदय स्थापित नहीं होगा। सर्वोदय को सफल बनाने के लिए जातिभेद मिटाना होगा और आर्थिक विषमता दूर करनी होगी। इनको मिटाने से ही सर्वोदय समाज बनेगा।'

'सर्वोदय ऐसी समाजरचना चाहता है जिमें वर्ण, वर्ग, धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर किसी समुदाय का न तो संहार हो, न बहिष्कार हो। सर्वोदय की समाजरचना ऐसी होगी, जो सर्व के निर्माण और सर्व की शक्ति से सर्व के हित में चले, जिसमें कम या अधिक शारीरिक सामर्थ्य के लोगों को समाज का संरक्षण समान रूप से प्राप्त हो और सभी तुल्य पारिश्रमिक (इक्वीटेबल वेजेज) के हकदार माने जाएँ। विज्ञान और लोकतंत्र के इस युग में सर्व की क्रांति का ही मूल्य है और वही सारे विकास का मापदंड है। सर्व की क्रांति में पूँजी और बुद्धि में परस्पर संघर्ष की गुंजाइश नहीं है। वे समान स्तर पर परस्पर पूरक शक्तियाँ हैं। स्वभावत: सर्वोदय की समाजरचना में अंतिम व्यक्ति समाज की चिंता का सबसे पहले अधिकारी है।

सर्वोदय समाज की रचना व्यक्तिगत जीवन की शुद्धि पर ही हो सकती है। जो व्रात नियम व्यक्तिगत जीवन में 'मुक्ति' के साधन हैं वे ही जब सामाजिक जीवन में भी व्यवहृत होंगे, तब सर्वोदय समाज बनेगा। विनोबा कहते हैं-'सर्वोदय की दृष्टि से जो समाज रचना होगी, उसका आरंभ अपने जीवन से करना होगा। निजी जीवन में असत्य, हिंसा, परिग्रह आदि हुआ तो सर्वोदय नहीं होगा, क्योंकि सर्वोदय समाज की विषमता को अहिंसा से ही मिटाना चाहता है। साम्यवादी का ध्येय भी विषमता मिटाना है, परंतु इस अच्छे साध्य के लिए वह चाहे जैसा साधन इस्तेमाल कर सकता है, परंतु सर्वोदय के लिए साधनशुद्धि भी आवश्यक है।'

गांधी जी भी कहते है-'समाजवाद का प्रारंभ पहले समाजवादी से होता है। अगर एक भी ऐसा समाजवादी हो, तो उसपर शून्य बढ़ाए जा सकते हैं। हर शून्य से उसकी कीमत दसगुना बढ़ जाएगी, लेकिन अगर पहला अंक शून्य हो, तो उसके आगे कितने ही शून्य बढ़ाए जाएँ, उसकी कीमत फिर भी शून्य ही रहेगी।'

इसीलिए गांधी जी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, शरीरश्रम, निर्भयता, सर्वधर्मसमन्वय, अस्पृश्यता और स्वदेशी आदि व्रातों के पालन पर इतना जोर देते थे।

(1) पारिश्रमिक की समानता - जितना वेतन नाई को उतना ही वेतन वकील को। 'अनटू दिस लास्ट' का यह तत्व सर्वोदय में पूर्णत: गृहीत है। साम्यवाद भी पारिश्रमिक में समानता चाहता है। यह तत्व दोनों में समान है।

(2) प्रतियोगिता का अभाव - प्रतियोगिता संघर्ष को जन्म देती है। साम्यवादी के लिए संघर्ष तो परम तत्व ही है। परंतु सर्वोदय संघर्ष को नहीं, सहकार को मानता है। संघर्ष में हिंसा है। सर्वोदय का सारा भवन ही अहिंसा की नींव पर खड़ा है।

(3) साधनशुद्धि - साम्यवाद साध्य की प्राप्ति के लिए साधनशुद्धि को आवश्यक नहीं मानता। सर्वोदय में साधनशुद्धि प्रमुख है। साध्य भी शुद्ध और साधन भी शुद्ध।

(4) आनुवंशिक संस्कारों से लाभ उठाने के लिए ट्रस्टीशिप की योजना - विनोबा कहते हैं-संपत्ति की विषमता कृत्रिम व्यवस्था के कारण पैदा हुई है, ऐसा मानकर उसे छोड़ भी दें, तो मनुष्य की शारीरिक और बौद्धिक शक्ति की विषमता पूरी तरह दूर नहीं हो सकती। शिक्षण और नियमन से यह विषमता कुछ अंश तक कम की जा सकती। किंतु आदर्श की स्थिति में इस विषमता के सर्वथा अभाव की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए शरीर, बुद्धि और संपत्ति इन तीनों में से जो जिसे प्राप्त हो, उसे यही समझना चाहिए कि वह सबके हित के लिए ही मिली है। यही ट्रस्टशिप का भाव है। अपनी शक्ति और संपत्ति का ट्रस्टी के नाते ही मनुष्यमात्र के हित के लिए प्रयोग करना चाहिए। ट्रस्टीशिप में अपरिग्रह की भावना निहित है। साम्यवाद में आनुवंशिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। उसकी नीति तो अभिजात्य के संहार की रही है।

(5) विकेंद्रीकरण - सर्वोदय सत्ता और संपत्ति का विकेंद्रीकरण चाहता है जिससे शोषण और दमन से बचा जा सके। केंद्रीकृत औद्योगीकरण के इस युग में तो यह और भी आवश्यक हो गया है। विकेंद्रीकरण की यही प्रक्रिया जब सत्ता के विषय में लागू की जाती है, तब इसकी निष्पत्ति होती है शासनमुक्त समाज में। साम्यवादी की कल्पना में भी राजसत्ता तेज गर्मी में रखे हु घी की तरह अंत में पिघल जानेवाली है। परंतु उसके पहले उसे जमे हुए घी की तरह ही नहीं, बल्कि ट्रट्स्की के सिर पर मारे हुए हथौड़े की तरह, ठोस और मजबूत होना चाहिए। (ग्रामस्वराज्य)। परंतु गांधी जी ने आदि, मध्य और अंत तीनों स्थितियों में विकेंद्रीकरण और शासनमुक्तता की बात कही है। यही सर्वोदय का मार्ग है।

इस समय संसार में उत्पादन के साधनों के स्वामित्व की दो पद्धतियों प्रचलित हैं-निजी स्वामित्व (प्राइवेट ओनरशिप) और सरकार स्वामित्व (स्टेट ओनरशिप)। निजी स्वामित्व पँूजीवाद है, सरकार स्वामित्व साम्यवाद। पूँजीवाद में शोषण है, साम्यवाद में दमन। भारत की परंपरा, उसकी प्रतिभा और उसकी परिस्थिति, तीनों की माँग है कि वह राजनीतिक और आर्थिक संगठन की कोई तीसरी ही पद्धति विकसित करे, जिससे पूँजीवाद के 'निजी अभिक्रम' और साम्यवाद के 'सामूहिक हित' का लाभ तो मिल जाए, किंतु उनके दोषों से बचा जा सके। गांधी जी की 'ट्रस्टीशिप' और 'ग्रामस्वराज्य' की कल्पना और विनोबा की इस कल्पना पर आधारित 'ग्रामदान-ग्राम स्वराज्य' की विस्तृत योजना में, दोनों के दोषों का परिहार और गुणों का उपयोग किया गया है। यहाँ स्वामित्व न निजी है, न सरकार का, बल्कि गाँव का है, जो स्वायत्त है। इस तरह सर्वोदय की यह क्रांति एक नई व्यवस्था संसार के सामने प्रस्तुत कर रही है'।

टीका टिप्पणी और संदर्भ