कर निर्धारण
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कर निर्धारण
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 414-416 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
स्रोत | एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका; एनसाइक्लोपीडिया ऑव सोशल साइंसेज़; ह्यू डाल्टन : पब्लिक फ़ाइनैंस; आइ.एस. गुलाटी : कैपिटल टैक्सेशन इन इंडिया। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामचन्द्र पाण्डेय |
शासन द्वारा समाज में व्यवस्था बनाए रखने एवं समस्त प्रजा की कल्याणकारी आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य से लगाए गए अनिवार्य उद्ग्रहण को 'कर' कहते हैं। कर की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि उसका व्यक्तिगत प्रत्यावर्तन (Quid por quo) नहीं हाता, अर्थात् उसके बदले में करदाता को व्यक्तिश: कुछ प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता। विनिमय के भाव का अभाव कर की कल्पना का सर्वविशिष्ट अंग है।
कर, शुल्क, मूल्य और अनुज्ञप्ति में अंतर
कर की इसी परिभाषा के कारण जल, विद्युत्, डाक, तार आदि विशिष्ट सेवाओं को प्राप्त करने के लिए दी जानेवाली धनराशि को कर नहीं कह सकते। वह मूल्य की श्रेणी में गिनी जाएगी। कारण, एक तो यह मूल्य देना प्रत्येक के लिए अनिवार्य नहीं और दूसरे मूल्य एवं उसके द्वारा प्राप्त सेवा में विनिमय का भाव प्रत्यक्ष ही अवलक्षित होता है (Quid pro quo)। इसी प्रकार शुल्क (फ़ी) एवं अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) भी कर से भिन्न है। पथशुल्क (टॉल टैक्स), गृहशुल्क (हाउस टैक्स), जलशुल्क (वाटर टैक्स) श्वपच शुल्क (स्कैवेंजिंग फ़ी) आदि प्रत्येक व्यक्ति को देना अनिवार्य नहीं। पथ, गृह, जल, श्वपच आदि का लाभ जो उठाना चाहते हैं उन्हें ही ये शुल्क देने पड़ते हैं। इसी प्रकार मादक पदार्थों का विक्रय करने के लिए जो अनुज्ञप्ति (लाइसेंस) दी जाती है उसके प्रतिदान में राज्य कुछ धनराशि लेता है। यहाँ भी अनुज्ञप्ति की प्राप्ति का एतदर्थ प्रदत्त धनराशि से प्रत्यक्ष संबंध है। इसीलिए अनुज्ञप्ति भी कर की परिभाषा में नहीं आती। कारण, कर किन्हीं सेवाओं का मूल्य या शुल्क नहीं होता। कर तो वास्तव में व्यक्ति के ऊपर शासन की सार्वभौम सत्ता एवं शक्ति का प्रतीक है। इस शक्ति के आधार पर ही शासन व्यक्ति पर उद्ग्रहण आरोपित कर सकता है, व्यक्ति उसका आनुपातिक प्रत्यावर्तन नहीं माँग सकता। जिन उद्ग्रहणों का आनुपातिक प्रत्यावर्तन के लिए शासन बाध्य हो, वे मूल्य, शुल्क या अनुज्ञप्ति भले ही हों, पर वे कर तो निश्चय ही नहीं हैं।
इतिहास
कर उतना ही प्राचीन है जितना राज्य। परंतु कर के रूप एवं वे सिद्धांत जिनके आधार पर उनका निर्धारण होता है, समय-समय पर परिवर्तित होते रहे हैं। ये सैद्धांतिक परिवर्तन मुख्यत: दो कारणों से हुए हैं।
नागरिकों के प्रति राज्य का कर्तव्य
प्रत्येक समाज जिस राज्य का निर्माण करता हैस, उस राज्य से कुछ अपेक्षाएँ भी रखता है। राज्य उन अपेक्षाओं के अनुरूप ही उस समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्धारण करता है। ये अपेक्षाएँ समय-समय पर परिवर्तित होती रहती हैं। उदाहरणस्वरूप प्राचीन या मध्यकाल में और राजतंत्र से संबंधित व्यक्तियों को अधिकाधिक सुख देना होता था। शासित वर्ग की सुख सुविधाओं का प्रबंध करना राज्य का कर्तव्य नहीं था। ऐसे राज्य नागरिकों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में कम से कम हस्तक्षेप करने की नीति में विश्वास रखते थे (Policy of Laissez-Faire)। इस सिद्धांत के अनुसार स्पष्ट है कि राज्य को अधिक धन की आवश्यकता नहीं पड़ती थी अतएव अधिक कर भी नहीं लगाए जाते थे और जो कर लगाए भी जाते थे उनके पीछे शासित वर्ग के कल्याण की भावना निहित नहीं होती थी।
धीरे-धीरे समाज के प्रति राज्य के कर्तव्य की कल्पनाएँ बदलने लगीं और यह विश्वास किया जाने लगा कि नागरिकों को सुख, समृद्धि और सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है। इन कल्पनाओं का पूर्ण विकसित रूप लोककल्याणकारी राज्य का आदर्श है। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना की कल्पना प्रजातंत्रवादी शासनतंत्र के आविर्भाव का परिणाम है। इस आदर्श को कार्यान्वित करने के लिए स्पष्टत: राज्य को अधिक धन की आवश्यकता हुई। परिणामस्वरूप न केवल करों की संख्या में वृद्धि आवश्यक हो गई प्रत्युत इस प्रकार के करों की खोज भी करनी पड़ी जो समाज के धनी एवं निर्धन, दोनों ही वर्गों से, उनकी क्षमता के अनुसार कर लेते हुए भी उन्हें समान सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर लाने में सफल हों। आयकर, व्ययकर, मृत्युकर, संपत्तिकर, दानकर आदि इसी खोज के परिणाम हैं।
समाज की बदलती हुई आर्थिक व्यवस्था
करप्रणाली की रूपरेखा पर समाज की आर्थिक स्थिति की सीधा प्रभाव पड़ता है। कृषिप्रधान राज्य में स्पष्टत: अधिकतर कर कृषिकर्म करनेवाले नागरिकों से ही वसूल किए जाएँगे। यही कारण है कि सामंती युग में भूराजस्व करप्रणाली का मुख्य आधार था। मध्यकालीन यूरोप में अधिकतर देशों में कृषि के स्थान पर व्यापार की प्रधानता हो गई। परिणामस्वरूप भूराजस्व के अतिरिक्त आयात, निर्यात कर एंव पथशुल्क का आविर्भाव हुआ। औद्योगिक क्रांति का प्रारंभ होने के बाद करप्रणाली के मुख्य आधार उद्योग संबंधी कर हो गए। विभिन्न प्रकार के उत्पादनशुल्क (एक्साइज़ ड्यूटीज़) एवं क्रय-विक्रय-कर इसी औद्योगिक आर्थिक प्रणाली की देन हैं।
करों के प्रकार
यों तो करों के अनेक प्रकार हैं, परंतु सर्वप्रमुख वर्गीकरण प्रत्यक्ष एवं परोक्ष करों का है। प्रत्यक्ष कर वे हैं जो जिस व्यक्ति पर लगाए जाएँ उसके द्वारा इनके भार का स्थानांतरण न हो सके। परोक्ष कर प्रत्यक्ष में तो एक व्यक्ति पर लगाए जाते हैं परंतु वह उस कर को एकत्र करने का माध्यम मात्र होता है क्योंकि उस कर के भार को स्वयं वहन नहीं करता वरन् तुरंत उसका स्थानांतरण कर देता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष एवं प्ररोक्ष कर के वर्गीकरण का मुख्य आधार स्थानांतरण की क्षमता है। यदि करभार स्थानांतरित किया जा सता है तो वह कर परोक्ष है। कारण, वह व्यक्ति जिसपर करभार स्थानांतरित किया गया है, यह नहीं जानता कि वह परोक्ष रूप में कर दे रहा है। इसके विपरीति यदि करभार स्थानांतरित नहीं किया जा सकता तो स्पष्ट है कि वही व्यक्ति, जिसपर कर आरोपित किया गया है, उस कर को देगा और जानेगा कि वह कर दे रहा है। उदाहरणार्थ आयकर, व्ययकर, दानकर, संपत्तिकर, मृत्युकर आरि प्रत्यक्ष कर हैं क्योंकि जिस व्यक्ति पर ये कर आरोपित किए जाते हैं वह पूर्णत: दूसरों से इन्हें किसी भी रूप में वसूल नहीं कर सकता। इसके विपरीत उत्पादनशुल्क, क्रय-विक्रय-शुल्क, आयात-निर्यात-कर आदि परोक्ष कर हैं। जिन व्यापारियों पर ये आरोपित होते हैं वे मूल्य के साथ-साथ अपने ग्राहकों से इनको भी वसूल लेते हैं।
प्रत्यक्ष कर के स्थानांतरित न हो सकने के गुण का परिणाम यह है कि शासन यदि चाहे तो उनका उपयोग किस वर्गविशेष पर करभार अधिक या कम करने में कर सकता है। परोक्ष कर का उपयोग इस रूप में नहीं हो सकता क्योंकि बराबर स्थानांतरित होते रहने के कारण यह अनुमान लगाना कठिन है कि अंततोगत्वा उस कर का भार किसने अधिक वहन किया। यही कारण है कि किसी भी लोककल्याणकारी शासन की करप्रणाली में प्रत्यक्ष करों को अधिक महत्व दिया जाता है और जहाँ तक संभव होता है, परोक्ष करों को कम से कम रखने का ही प्रयास किया जाता है; क्योंकि प्रत्यक्ष करों के द्वारा ही धनिक वर्ग से, मध्यम एवं निम्न वर्ग की तुलना में, अधिक धनराशि उद्ग्रहीत हो सकती है और कर प्रणाली को प्रगतिशील रूप देते हुए समस्त नागरिकों की सामाजिक एवं आर्थिक समता के आदर्श की उपलब्धि संभव है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि परोक्ष करों का कोई उपयोग नहीं है। वास्तव में राज्य के जनोन्नति के प्रयासों में अधिकाधिक धन की आवश्यकता होती है। यह समस्त धन प्रत्यक्ष करों से प्राप्त नहीं हो सकता। एतदर्थ परोक्षा करों का सहारा लेना ही पड़ता है, विशेष रूप से इसलिए कि उनके द्वारा धनप्राप्ति भी हो जाती है, साथ ही परोक्ष रूप में होने के कारण उद्ग्रहण के प्रति स्वाभाविक विरोध की प्रक्रिया भी तीव्र नहीं हो पाती।
करों के अन्य वर्गीकरण विशेष महत्वपूर्ण नहीं हैं। संक्षेप में वे हैं-(क) मूल्याधार या नाप तौल के आधार पर-कुछ वस्तुओं पर कर मूल्य के प्रतिशत पर लगता है, कुछ पर उनकी तौल के आधार पर; जैसे १ रुपया प्रति किलोग्राम, या ३० नए पैसे प्रति गज। (ख) आवश्यकता के आधार पर-जैसे सामान्य और आपत्कालीन कर। (ग) स्थायत्वि के आधार पर, जैसे स्थायी और आपात्कालीन कर; उदाहरणार्थ, अतिरिक्त लाभकर, व्यापारिक लाभकर आदि, जो युद्धकाल में भारत में भी लगाए गए थे। (घ) क्षेत्राधिकार के आधार पर-जैसे, राष्ट्रीय, प्रांतीय तथा स्थानीय। (ङ) आनुपतिक आधार पर-इस आधार पर करों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-आनुपातिक, प्रगतिशील एवं प्रतिगामी। आनुपातिक कर उसे कहते हैं जो व्यक्ति की कर-देय-क्षमता की चिंता किए बिना प्रत्येक व्यक्ति से समान अनुपात से लिया जाता है। प्रगतिशील कर उसे कहते हैं जो कर-देय-क्षमता को ध्यान में रखते हुए अधिक क्षमतावालों से अधिक और कम क्षमतावालों से कम लिया जाए। उदाहरणस्वरूप् आयकर, व्ययकर आदि। प्रतिगामी कर प्रगतिशील का उल्टा होता है। अर्थात् लागों की कर देने की क्षमता कम है उन्हें अधिक और जिनकी क्षमता अधिक है, उन्हें कम कर देना होता है। फ्रांस में सन् १७८९ की राज्यक्रांति से पूर्व इसी प्रकार की कर प्रणाली विद्यमान थी जहाँ अमीर सामंतों को कर 'नहीं' के बराबर देना होता था जब कि निर्धन कृषक करभार से दबे हुए थे। आजकल इस प्रकार के प्रतिगामी कर का शुद्ध उदाहरण प्राप्त होना कठिन है, परंतु वास्तव में अंतिम प्रभाव की दृष्टि से सारे ही परोक्ष कर प्रतिगामी होते हैं। इस दृष्टि से सभी आनुपातिक कर भी प्रतिगामी की श्रेणी में ही आ जाते हैं। इसलिए करों का वास्तविक वर्गीकरण आनुपातिक, प्रगतिशील और प्रतिगामी के रूप में नहीं अपितु प्रगतिशील और प्रतिगामी के ही रूप में होना चाहिए।
करनिर्धारण के आदर्श
करनिर्धारण राज्य द्वारा होता है। अतएव किस राज्य में करनिर्धारण कैसा हो, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस राज्य के आदर्श क्या हैं। यदि राज्य स्वयं को नागरिकों की शांति, व्यवस्था और देश की सुरक्षा मात्र के लिए उत्तरदायी समझता है तो स्पष्ट है कि ऐसा राज्य देश की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में परिवर्तन लाने की तनिक भी उत्सुकता न दिखाएगा। ऐसे राज्य में कर राज्य के लिए धन एकत्रित करने के साधन मात्र होंगे, उनका अन्य कोई उद्देश्य नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि जो कर लगाए जाएँ वे स्वयं अपनी प्रतिक्रिया द्वारा समाज के जीवन पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव छोड़ जाएँ, पर राज्य का उद्देश्य करप्रणाली द्वारा यह प्रभाव उत्पन्न करना नहीं था। राज्य के कर्तव्यादर्श की यह विचारधारा अब बहुत पुरानी हो चुकी है।
१९वीं तथा २०वीं सदी के पूर्वार्ध में पाश्चात्य देशों में औद्योगिक क्रांति के कारण जब आर्थिक प्रगति तीव्रता से ही हो रही थी, उस समय उन राज्यों की करप्रणाली का मुख्य उद्देश्य उत्पादन में सहायता प्रदान करना था।
प्रथम महायुद्ध के पश्चात् सभी देशों के राजनीतिक एवं आर्थिक चिंतन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। अभी तक अधिकतर पाश्चात्य देशों में अर्थविदों एवं राजनीतिज्ञों का ध्यान केवल राष्ट्र की संपत्ति बढ़ाने में था। उस बढ़ती हुई राष्ट्र की संपदा का राष्ट्र के विभिन्न वर्गों में वितरण किस प्रकार हो रहा है, इस ओर राज्य का ध्यान बिल्कुल नहीं था। इसका परिणाम यह हुआ कि पूँजीवादी अर्थनीति के कारण अधिकतर देशों में विभिन्न वर्गों में असमानता एवं विषमता बढ़ती गई। साथ ही, चूँकि पूँजीवादियों का मुख्य उद्देश्य लाभ की प्राप्ति था, इसलिए जब कभी उनके लाभांश में कमी होने का अंदेशा होता था, वह उत्पादन से एकदम हाथ खींच लेते थे और उत्पादित वस्तुओं को जला देने या समुद्रतल में डुबा देने में भी संकोच नहीं करते थे। १९३० में जब विश्वव्यापी महान् आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ तब उद्योगपतियों ने अपनी मिलों में ताले डाल दिए। राष्ट्रों का उत्पादन एकदम गिर गया, भयानक बेकारी चारों ओर फैल गई। आर्थिक वितरण की विषमता के कारण राष्ट्र की संपत्ति का अधिकांश उद्योगपतियों के पास था अतएव उन्हें अधिक कष्ट नहीं उठाना पड़ा। परंतु मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोग मर मिटे। इन सब परिस्थितियों को देखकर समाजशास्त्रियों एवं अर्थविदों ने अपनी विरोध की आवाज ऊँची की और कहा कि राज्य को स्वयं ऐसी स्थिति में आर्थिक जीवन में प्राण डालने का प्रयास करना चाहिए एवं बेकारी तथा वितरण की समस्या को सदा के लिए दूर कर देना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप लोककल्याणकारी राज्य की भावना का प्रादुर्भाव हुआ और राज्य के नागरिकों के प्रति कर्तव्यादर्श परिवर्तित हुए। राज्य की अर्थनीति को, करनीति जिसका एक अंतरंग भाग है, एक नई दिशा मिली और अर्थनीति का मुख्य उद्देश्य हो गया-(१) सब कार्य कर सकने योग्य व्यक्तियों को कार्य दिलाना (फ़ुल एंप्लायमेंट) एवं (२) संपूर्ण समाज की सुख समृद्धि को अधिकतम करना (मैक्सिमम सोशल ऐडवेंटेज)। आजकल के सभ्य कहे जानेवाले सभी राष्ट्रों की अर्थनीति के यही दो आदर्श हैं। इन आदर्शों की पूर्ति के लिए जहाँ यह आवश्यक है कि राष्ट्र की आय अधिक से अधिक अधिकतर होती चले, वहाँ यह भी आवश्यक है कि यह बढ़ती हुई राष्ट्रसंपदा सब वर्गों में समान रूप वितरित हो। यही कारण है कि जहाँ आजकल की करप्रणालियों में उत्पादन को प्रोत्साहन देने की व्यवस्था होती है वहाँ साथ ही इस बात का भी प्रबंध होता है कि धनिक वर्गों से अधिकाधिक धन कर द्वारा लेकर राज्य उसका व्यय लोकमंगल के कार्यों में करे जिसका अधिक लाभ उन वर्गों को प्राप्त हो जिनसे या तो कम कर लिया जाता है या बिल्कुल ही नहीं लिया जाता।
ऐसी सुव्यवस्थित करप्रणाली का निर्माण सरल नहीं है, जो राज्य के आदर्शों को पूर्ण रूप से कार्यान्वित कर सके। अर्थशास्त्रियों ने सुव्यवस्थित करप्रणाली की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है। वे ये हैं : (क) लचीलापन्ा। करव्यवस्था ऐसी हो कि उससे आवश्यकतानुसार धनराशि का उद्ग्रहण कम या अधिक किया जा सके; (ख) स्थायित्व। करप्रणाली में शीघ्र परिवर्तन नहीं होने चाहिएँ। उसमें स्थायत्वि का अंश रहना आवश्यक है अन्यथा करप्रशासन में बहुत कठिनाइयाँ होंगी; (ग) सारल्य। करव्यवस्था इतनी सरल हो कि जनसाधारण सुगमता से उसे समझ सके और अपने करभार का अनुमान लगा सके; (घ) समानता तथा न्यायपरता। यह नितांत आवश्यक है कि कोई नागरिक यह न अनुभव करे कि किसी वर्ग के साथ पक्षपात किया जा रहा है और स्वयं उसके साथ अन्याय या असमानता का व्यवहार किया गया है। यदि करव्यवस्था में वर्गविशेष के साथ पक्षपात होगा तो निश्चय ही समाज में अशांति होगी। (ङ) मितव्ययता। कर प्रणाली इस प्रकार की हो कि करनिर्धारण करने एवं एकत्र करने में कम से कम व्यय हो।
संक्षेप में किसी भी अच्छी करव्यवस्था में कर इस प्रकार लगाए जाएँ कि वे उत्पादन में बाधक न हों, उनके वसूल करने में कम से कम व्यय हो, उनके कारण नागरिकों में विरोध की भावना न उदित हो और सामाजिक दुर्गुणों का उदय न हो। यदि सामाजिक हित का प्रोत्साहन करव्यवस्था के द्वारा किया जाता है, नागरिकों को यह विश्वास हो जाता है कि करव्यवस्था न्यायसंगत है और उसके करण उत्पादनक्षमता बढ़ती है और बेकारी की समस्या का निराकरण होता है, तो ऐसी आदर्श व्यवस्था में नागरिक को कर देने में भी उत्साह होता है।
करव्यवस्था में करप्रशासन का महत्व बहुत बड़ा है। करप्रशान के बुरे होने पर करों के प्रति जनता में घृणा और क्रोध की भावना उत्पन्न होती है। इसलिए यह कहा गया है कि करव्यवस्था के अच्छे या बुरे हाने में विधायिका का हाथ १० प्रतिशत और प्रशासन का ९० प्रतिशत रहता है।
करनिर्धारण की तीन स्थितियाँ होती हैं। पहली स्थिति में विधायिका कर के नियम और अधिनियम बनाती है जिनके आधार पर प्रशासन करनिर्धारण करता है। दूसरी स्थिति करनिर्धारण की है जिसमें प्रशासक व्यक्तिविशेष की स्थिति (स्टेटस) पर ध्यान देते हुए विधायिका द्वारा निश्चित किए हुए नियमों एवं अधिनियमों के आधार पर उस व्यक्तिविशेष का करभार निर्धारित करते हैं। तीसरी स्थिति कर का उद्ग्रहण करने की है जिसमें निर्धारित कर को प्रशासन व्यक्ति से उद्ग्रहीत करता है। कर न देने की स्थिति में करप्रणाली में दंड का विधान होता है। दंड अधिकतर आर्थिक होता है किंतु किन्हीं विशेष परिस्थितियों में कारागार बंदी बना दिए जाने का भी विधान होता है। करनिर्धारण एवं करोद्ग्रहण दोनों प्रशासन का उत्तरदायित्व है। इन कार्यों का सुचारु, निर्भीक एवं न्यायपूर्ण ढंग से संपादन करने में ही प्रशासन की कुशलता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ