गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 143
गीता का यह सिद्धांत कि सबमें एक ही आत्मा है, और प्रत्येक प्राणी के हृदेश मे भगवान् विराजमान हैं और साथ ही सृष्टिकर्ता प्रजापति और उनकी प्रजा, इन दोनों का जैसा परस्पर - संबध गीता बतलाती तथा विभूति - तत्व का प्रतिपादन जिस जोरदार आग्रह के साथ करती है, इन सभी बातों को ध्यान में रखना होगा और एक साथ विचारना होगा । भगवान् अपने निष्काम कर्म का उदाहरण देते हैं, जो मानव श्रीकृष्ण पर उतना ही घटता है जितना सर्वलोकमहेश्वर पर, उसकी भाषा को भी ध्यान में रखना होगा और नवें अध्याय के इस वचन को भी उसका प्राप्य स्थान देना होगा कि “ मूढ़ लोग मानुषी तनु में आश्रित मुझे तिरस्कृत करते हैं क्योंकि वे मेरे सर्वलोकमहेश्वर परम भाव को नहीं जातने;”१ और इन विचारों को सामने रखकर तब इस वचन का अभिप्राय निकलना होगा जो इस समय हमारे सामने है कि उनके दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के ज्ञान द्वारा मनुष्य भगवान् के पास आता है और भगवन्मय होकर तथा उनका आश्रित होकर उनके भाव को प्राप्त होता है, तब हम दिव्य जन्म और उसके हेतु का यह तत्व समझ सकेंगे कि यह कोई सबसे न्यारी अचरजभरी विलक्षण - सी चीज नही है, बल्कि जगत् - प्राकटय का जो संपूर्ण क्रम है उसमें इसका भी एक विशिष्ट स्थान है; इसके बिना हम अवतार के इस दिव्य रहस्य को समझ ही नही सकेंगे, बल्कि इसकी खिल्ली उड़ायेंगे या बिना समझे इसे मान लेंगे अथवा इसके बारे में आधुनिक मन के उन क्षुद्र और बाहरी विचारों में जा फंसेंगे जिनसे इसका जो आंतरिक और उपयोगी अर्थ है, वह नष्ट हो जायेगा।
क्योंकि आधुनिक मन के लिये अवतार - तत्व तर्क बद्ध मानव - चेतना पर पूर्व की और से धरा - प्रभाह आनेवाली विचारधराओं में किए विचार हैं और इसे स्वीकार करना या समझना सबसे कठिन है। यदि वह अवतारत्तव को उदार भाव से ले तो वह कहेगा कि वह मानव शक्ति का , स्वभाव का , प्रतिभा का , जगत् के लिये जगत् में किये गये किसी महान कर्म का एक प्रतीक मात्र है और यदि वह इसको अनुदार भाव से ग्रहण करे तो वह कहेगा कि यह एक कुसंस्कार या मूढ़ - विश्वासमात्र है नास्तिक के लिये यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है और यूनानी के लिये मार्ग का रोड़ा । जड़वादी तो इस विचार को अपने ध्यान में भी नहीं ला सके, क्योंकि वे ईश्वर की सत्ता को ही नहीं मानते ; युक्तिवादी या भागवत प्राकटय को न माननेवाले ईश्वरवादी इसे मूर्खता और उपहास का विषय समझ सकते हैं; कट्टर द्वैतवादियों की दृष्टि में मानव - स्वभाव और देवस्वभाव के बीच का अंतर कभी मिट ही नहीं सकता , इसलिये उनकी दृष्टि में तो ऐसी बात कहना ईश्वर की निंदा ही है।
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