गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 162
पर जब किसी संकट के मूल में कोई आध्यात्मिक बीज या हेतु होता है तब मानव - मन और आत्मा में प्रवर्तक और नेता के रूप से भागवत चैतन्य का पूर्ण या आंशिक प्रादुर्भाव होता है । यही अवतार है।
अवतार के बाह्म कर्म का वर्णन गीता में धर्मसंस्थापनार्थाय कहकर किया गया है; जब - जब धर्म की ग्लानि या हृास होता है , उसका बल क्षीण हो जाता है और अधर्म सिर उठाता , प्रबल होता और अत्याचार करता है तब - तब अवतर आते और धर्म को फिर से शक्तिशाली बनाते हैं । जो बातें विचार के अंतर्गत होती हैं वे कर्म के द्वारा तथा विचारों की प्रेरणा का अनुगमन करने वाले मानव - प्राणी के द्वारा प्रकट होती है , इसलिये अत्यंत मानवी और लौकिका भाषा में अवतार का काम है प्रतिगामी अंधकार के राज्य द्वारा सताये गये धर्म के अन्वेशषकों की रक्षा करना , और अधर्म को बनाये रखने की इच्छा करने वाले दुष्टों का नाश करना । परंतु इस बात को कहने में गीता ने जिंन शब्दों का प्रयोग किया है उनकी ऐसी संकीर्ण और अधूरी व्याख्या की जा सकती है।
जिससे अवतार का आध्यात्मिक गंभीर अर्थ जाता रहे। धर्म एक एक ऐसा शब्द है जिसका नैतिक और व्यावाहारिक , प्राकृतिक और दार्शनिक , धार्मिक और आध्यात्कि, सभी प्रकार का अर्थ होता है और इनमें से किसी भी अर्थ में इस शब्द का इस तरह से प्रयोग किया जा सकता है कि उसमें अन्य अथ्रो की गुजांयश न रहे , उदाहरणार्थ , इसका केवल नैतिक अथवा केवल दार्शनिक या केवल धार्मिक अर्थ किया जा सकता है। नैकित रूप से सदाचार के नियम को , जीवनचर्या - संबंधी नैतिक विधान को अथवा और भी बाह्म और व्यावहारिक अर्थ मगर सामाजिक और राजनीतिक न्याय को या केवल सामाजिक नियमों के पालन को धर्म कहा जाता है। यदि हम इस शब्द को इसी अर्थ में ग्रहण करे , तो इसका यही अभिप्राय हुआ कि जब अनाचार , अन्याय और दुराचार का प्राबल्य होता है तब भगवान् अवतार लेकर सदाचारियों को बचाते और दुराचारिकयों को नष्ट करते हैं , अन्याय और अत्याचार को रौंद डालते और न्याय और सद्व्यवहार को स्थापित करते हैं ।कृष्णवतार का प्रसिद्ध पौराणिक वर्णन इसी प्रकार का है । कौरवों का अत्याचार , दुर्योधनादि जिसके मूर्त रूप हैं , इताना बढा कि पृथवी के लिये उसका भार असह्य हो उठा और पृथ्वी को पृथ्वी को भगवान् से अवतार लेने और भार हल्का करने की प्रार्थना करनी पड़ी , तदानुसार विष्णु श्री कृष्णरूप में अवतीर्ण हुए , उन्होने अत्याचार - पीड़ित पांडवों का उद्धार और अन्यायी कौरवों का संहार किया । उसके पूर्व अन्यायी अत्याचारी रावण का वध करने के लिये जो विष्णु का रामावतार अथवा क्षत्रियों की उद्दंडता को नष्ट करने के लिये परशुरामवतार या दैत्याज बलि के राज्य को मिटाने के लिये वामनावतार हुआ उसका भी ऐसा ही वर्णन है। परंतु यह प्रत्यक्ष है कि पुराणों के इस प्रसिद्ध वर्णन से कि अवतार इस प्रकार के सर्वथा व्यवहारिक, नैतिक , सामाजिक और राजनीतिक कर्म को करने के लिये आते हैं , अवतार के कार्य का सच्चा विवरण नहीं मिलता ।
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