गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 48

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गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

आज भी हम लोग, सिवाय इसके कि परस्पर - विरोधी स्वार्थों के बीच यथासंभव कोई ऐसा समझौता कर लिया करें जिससे अतिभीषण और बीभत्स संघर्ष - संग्राम कुछ कम हो जाये, जरा भी आगे नहीं बढ पाये हैं। और इसके लिये मनुष्य जाति को अपनी ही प्रकृति के वश जिस उपाय और जिस ढंग का अवलंबन करना पड़ता है वह एक ऐसा महाभयंकर रक्तपात जिसका इतिहास में जोड नहीं! अर्थात् आधुनिक मनुष्य को जगदव्यापी शाति की स्थापना का जो सीधा और सफल मार्ग मिला है वह है कटुता और दुर्दमनीय द्वेष से परिपूर्ण विश्वव्यापी महायुव्द्ध इस शांति की स्थपना के मूल में भी कोई ऐसा भाव नहीं है जो मनुष्य स्वभाव के आमूल परिवर्तन से उत्पन्न हुआ हो, बल्कि मनुष्यों की जैसी बौद्धिक धारणाएं है, आर्थिक सुविधा का जो ख्याल है प्राणहानि के भय से उनके प्राण और उनकी भावुकता जो कांप उठती है, युद्ध से उनको जो असुविधा और घबराहट होता है उसीसे ऐसी शांति की रक्षा का प्रयत्न किया जाता है इस पकार से जो शांति स्थापित की जाती है उसकी नींव दृढ हो और वह बहुत काल तक स्थिर रहे ऐसा भरोसा नहीं होता एक दिन आ सकता है , बल्कि हम कहें कि निश्चय ही आयेगा, जब मनुष्य - जाति आध्यात्मिक , नैतिक और सामाजिक रूप से इस बात के लिये तैयार होगी कि सर्वत्र शांति का राज हो लेकिन तब तक किसी व्यावहारिक तत्वज्ञान और धर्मशास्त्र को यह मानकर चलना होगा कि युद्ध जीवन का अंग है , और लड़ना मनुष्य का स्वभाव और कर्म है और मनुष्य के योद्धा - रूप के स्वभाव और कर्तव्य को मानकर उसका लेखा जोखा करना होगा।
किसी सुदूर भविष्य में मानव जीवन किस प्रकार का हेगा केवल इसी का विचार न करके , उसके वर्तमान रूप को देखती हुई गीता यह प्रश्न उपस्थित करती हे कि मनुष्य जीवन के इस पहलू और कर्तव्य का , जो वास्तव में मनुष्य की सर्वसाधारण गतिविधि का ही एक अंग है स्वभव है उसकी आत्मिक स्थिति के साथ कैसे मेल बैठाया जाये। इसीलिये गीता एक योद्धा से कही गयी है जो कर्मठ है? उसके जीवन का कर्तव्य है युद्ध और संरक्षण युद्ध उसके प्रजापालन धर्म का एक अंग है, उन लोगों की रक्षा के लिये जो युद्ध - कर्म से बरी हैं, जो अपनी रक्षा आप करने से वंचित कर दिये गये हैं और इसीलिये बलवान् और आततायी मनुष्यों से अपने को नहीं बचा सकते । और फिर युद्ध का एक और नैतिक और वीरोचित भाव है, अर्थात दीन - दुर्बलों और पीडितों की रक्षा और जगत् में धर्म और न्याय की स्थापना । ये सभी सामाजिक और व्यावहारिक , नैतिक और वीरोचित भावनाऐं क्षत्रिय शब्द के भारतीय भाव के अंतर्गत आ जाती है, क्षत्रिय कर्म से योद्धा और शासक होता है और स्वभाव से शूर - वीर और राजा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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