भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 81

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अध्याय-2

सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

                   
7.कार्पण्यदोषो पहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसमूढचेताः।
यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे,
शिष्यस्तेअहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

मेरा सम्पूर्ण अपनापन (भावुकतापूर्ण) दया की दुर्बलता से ग्रस्त हो उठा है। अपने कत्र्तव्य के विषय में मेरा चित्त मूढ़ हो गया है। इसलिए मैं तुमसे पूछता हूँ। मुझे निश्चित रूप से यह बताओं कि मेरे लिए क्या भला है। मैं तुम्हारा शिष्य हूँ। मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। मुझे उपदेश दो।
निश्चितम्: निश्चित रूप से। अर्जुन केवल निराशा, चिन्ता या संशय से ही प्रेरित नहीं है, अपितु वह निश्चय के लिये तीव्र इच्छा से भी प्रेरित है। अपनी अविवेकशीलता को अनुभव करना व्यक्ति के विवके के विकास की ओर आगे बढ़ना है। अपूर्णता की सजग अनुभूति इस बात की द्योतक है कि आत्म सचेत है और जब तक वह सचेत है, वह सुधर सकती है, जैसे कि जीवित शरीर किसी जगह चोट खा जाने या कट जाने पर फिर स्वस्थ हो सकता है। मानव-प्राणी पश्चात्ताप के संकटकाल में से गुजरकर उच्चतर दशा की ओर बढ़ता है।
जिज्ञासुओं का यह समान्य अनुभव है कि वे जब प्रकाश की देहली पर खड़े होते हैं, तब भी वे संशयों और कठिनाइयों से ग्रस्त रहते हैं। जब प्रकाश किसी आत्मा में चमकना शुरू होता है, तो वह उसके प्रतिरोध के लिए अन्धकार को भी बढ़ावा देता है। अर्जुन के सामने बाह्य और आन्तरिक कठिनाइयाँ, उदाहरण के लिए सम्बन्धियों और मित्रों का प्रतिरोध, संशय और भय, वासनाएँ और इच्छाएं विद्यमान हैं। इन सबको वेदी पर बलि कर देना होगा और ज्ञान की आग में भस्म कर देना होगा। अन्धकार के साथ संघर्ष तब तक चलता रहेगा, जब तक व्यक्ति का सम्पूर्ण अपनापन प्रकाश से न भर उठे। दीनता के बोझ से दबा हुआ, क्या सही है और क्या गलत, इस विषय में दुविधा में पड़ा हुआ अर्जुन अपने गुरु से, अपने अन्दन विद्यमान भगवान् से प्रकाश और पथ-प्रदर्शन प्राप्त करना चाहता है। जब किसी का संसार नष्ट हो रहा हो,तब वह केवल अन्तर्मुख होकर भगवान् की असीम दया के उपहार के रूप में ज्ञान की खोज कर सकता है।
अर्जुन किसी अधिविद्या की मांग नहीं करता, क्यों कि वह ज्ञान का अन्वेषक नहीं है। वह तो एक कर्मशील मनुष्य है; इसलिए वह कर्म का विधान जानना चाहता है। वह अपना कत्र्तव्य जानना चाहता है। वह जानना चाहता है कि उसे किस कठिनाई के अवसर पर क्या करना है। ’’ स्वामी, तुम मुझसे क्या करने की अपेक्षा करते हो?’’ अर्जुन की भाँति साधक को अपनी दुर्बलता और अज्ञान को अनुभव करना होगा और फिर भी उसे परमात्मा की इच्छा के अनुसार कार्य करने, और वह इच्छा क्या है, इसे खोज निकालने के लिए कटिबद्ध होना होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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