महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 143 श्लोक 38-54
त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय :अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
धर्मानुसार अपराधी को दण्ड दे। दण्ड का त्याग न करे। प्रजा को धर्मकार्य का उपदेश दे। राजकार्य करने के लिये नियम और विधान से बँधा रहे। प्रजा से उसकी आय का छठा भाग करके रूप में ग्रहण करे। कार्यकुशल धर्मात्मा क्षत्रिय स्वच्छन्दतापूर्वक ग्राम्य धर्म (मैथुन) का सेवन न करे। केवल ऋतुकाल में ही सदा पत्नी के निकट शयन करे। सदा उपवास करे अर्थात् एकादशी आदि के दिन उपवास करे और दूसरे दिन भी सदा दो ही समय भोजन करे। बीच में कुछ न खाय। नियमपूर्वक रहे, वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय में तत्पर रहे, पवित्र हो प्रतिदिन अग्निशाला में कुश की चटाई पर शयन करे। क्षत्रिय सदा प्रसन्नतापूर्वक सबका आतिथ्य सत्कार करते हुए धर्म, अर्थ और काम का सेवन करें। शूद्र भी यदि अन्न् की इच्छा रखकर उसके लिये प्रार्थना करे तो क्षत्रिय उनके लिये सदा यही उत्तर दे कि तुम्हारे लिये भोजन तैयार है, चलो कर लो। वह स्वार्थ या कामनावश किसी वस्तु का प्रदर्शन न करे। जो पितरों, देवताओं तथा अतिथियों की सेवा के लिये चेष्टा करता है, वही श्रेष्ठ क्षत्रिय है। क्षत्रिय अपने ही घर में न्यायपूर्वक भिक्षा (भोजन) करे। तीनों समय विधिवत् अग्निहोत्र करता रहे। वह धर्म में स्थित हो त्रिविध अग्नियों की मन्त्रपूर्वक परिचर्या से पवित्रचित्त हो यदि गौओं तथा ब्राह्मणों के हित के लिये समर में शत्रु का सामना करते हुए मारा जाय तो दूसरे जन्म में ब्राह्मण होता है। इस प्रकार धर्मात्मा क्षत्रिय अपने कर्म से जन्मान्तर में ज्ञानविज्ञानसम्पन्न, संस्कारयुक्त तथा वेदों का पारंगत विद्वान् ब्राह्मण होता है। देवि! इन कर्मफलों के प्रभाव से नीच जाति एवं हीन कुल में उत्पन्न हुआ शूद्र भी जन्मान्तर में शास्त्रज्ञान सम्पन्न और संस्कारयुक्त ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण भी यदि दुराचारी होकर सम्पूर्ण संकर जातियों के घर भोजन करने लगे तो वह ब्राह्मणत्व का परित्याग करके वैसा ही शूद्र बन जाता है। देवि! शूद्र भी यदि जितेन्द्रिय होकर पवित्र कर्मों के अनुष्ठान से अपने अन्तःकरण को शुद्ध बना लेता है, वह द्विज की ही भाँति सेव्य होता है- यह साक्षात् ब्रह्माजी का कथन है। मेरा तो ऐसा विचर है कि यदि शूद्र के स्वभाव और कर्म दोनों ही उत्तम हों तो वह द्विजाति से भी बढ़कर मानने योग्य है। ब्राह्मणत्व की प्राप्ति में न तो केवल योनि, न संस्कार, न शास्त्रज्ञान और न संतति ही कारण है। ब्राह्मणत्व का प्रधान हेतु तो सदाचार ही है। लोक में यह सारा ब्राह्मणसमुदाय सदाचार से ही अपने पद पर बना हुआ है। सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है। सुश्रोणि! ब्रह्म का स्वभाव सर्वत्र समान है। जिसके भीतर उस निर्गुण और निर्मल ब्रह्म का ज्ञान है, वही वास्तव में ब्राह्मण है, ऐसा मेरा विचार है। देवि! ये जो चारों वर्णों के स्थान और विभाग बतलाये गये हैं, ये उस-उस जाति में जन्म ग्रहण करने के फल हैं। प्रजा की सृष्टि करते समय वरदाता ब्रह्माजी ने स्वयं ही यह बात कही है। भामिनि! ब्राह्मण संसार में एक महान क्षेत्र है। दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा इसमें विशेषता इतनी ही है कि यह पैरों से युक्त चलता-फिरता खेत है। इस क्षेत्र में जो बीज डाला जाता है, वह परलोक के लिये जीविका की साधनरूप खेती के रूप में परिणत हो जाता है।
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