महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-40

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पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-40 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

अपने गुरूजन के प्रसन्न होने पर मनुष्य कभी मन से भी नरक में नहीं पड़ता। उन्हें जो अप्रिय लगे, ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिये, जिससे उनका अनिष्ट हो, ऐसा काम भी नहीं करना चाहिये। उनसे झगड़कर नहीं बोलना चाहिये और उनके समीप कभी किसी बात के लिये होड़ नहीं लगानी चाहिये। वे जो-जो काम कराना चाहें, उनकी आज्ञा के अधीन रहकर वह सब कुछ करना चाहिये। वेदों की आज्ञा के समान गुरूजनों की आज्ञा का पालन अभीष्ट माना गया है। गुरूजनों के साथ कलह और विवाद छोड़ दे, उनके साथ छल-कपट, परिहास तथा काम-क्रोध के आधारभूत बर्ताव भी न करे। जो आलस्य और अहंकार छोड़कर गुरूजनों की आज्ञा का पालन करता है, समस्त मनुष्यों में उससे बढ़कर पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं है। गुरूजनों के दोष देखना और उनकी निन्दा करना छोड़ दे, उनके प्रिय और हित का ध्यान रखते हुए सदा उनकी परिचर्या करे। यज्ञों का फल और किया हुआ महान् तप भी इस जगत् में मनुष्य को वैसा लाभ नहीं पहुँचा सकता, जैसा सदा किया हुआ गुरूपूजन पहुँचा सकता है। सभी आश्रमों में अनुवृत्ति (गुरूसेवा) के बिना कोई भी धर्म सफल नहीं हो सकता। इसलिये क्षमा से युक्त और सहनशील होकर गुरूसेवा करे। विद्वान पुरूष गुरू के लिये अपने धन और शरीर को समर्पण कर दे। धन के लिये अथवा मोहवश उनके साथ विवाद न करे। जो गुरूजनों से अभिशप्त है, उसके किये हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा और नाना प्रकार के दान- ये सब व्यर्थ हो जाते हैं। जो लोग उपाध्याय, पिता और माता के साथ मन, वाणी एवं क्रिया द्वारा द्रेह करते हैं, उन्हें भ्रूणहत्या से भी बड़ा पाप लगता है। उनसे बढ़कर पापाचारी इस संसार में दूसरा कोई नहीं है।। उमा ने कहा- प्रभो! अब आप मुझे उपवास की विधि बताइये। श्रीमहेश्वर बोले- प्रिये! शारीरिक दोष की शान्त के लिये और इन्द्रियों को सुखाकर वश में करने के लिये मनुष्य एक समय भोजन अथवा दोनों समय उपवासपूर्वक व्रत धारण करते हैं और आहार क्षीण करदेने के कारण महान् धर्म का फल पाते हैं। जो अपने लिये बहुस से प्राणियों को बन्धन में नहीं डालता और न उनका वध ही करता है, वह जीवन भर धन्य माना जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि स्वयं आहार को घटा देने से मनुष्य अवश्य पुण्य का भागी होता है। इसलिये गृहस्थों को यथाशक्ति आहार-संयम करना चाहिये, यह शास्त्रों का निश्चित आदेश है। उपवास से जब शरीर को अधिक पीड़ा होने लगे, तब उस आपत्तिकाल में ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर यदि मनुष्य दूध अथवा जल ग्रहण कर ले तो इससे उसका व्रत भंग नहीं होता। उमा ने पूछा- देव! विज्ञ पुरूष को ब्रह्मचर्य की रज्ञा कैसे करनी चाहिये? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह विषय मैं तुम्हें बताता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। ब्रह्मचर्य सर्वोत्तम शौचाचार है, ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट तपस्या है तथा केवल ब्रह्मचर्य से भी परम पद की प्राप्ति होती है। संकल्प से, दृष्टि से, न्यायोचित वचन से, स्पर्श से और संयोग से- इन पाँच प्रकारों से व्रत की रक्षा होती है। व्रतपूर्वक धारण किया हुआ निष्कलंक ब्रह्मचर्य सदा सुरक्षित रहे, ऐसा नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के लिये विधान है। वही ब्रह्मचर्य गृहस्थों के लिये भी अभीष्ट है, इसमें काल ही कारण है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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