महाभारत आदि पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-21

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एकोनविंश (19) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकोनविंश अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—अमृत हाथ से निकल जाने पर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं पर टूट पड़े। उधर अनन्त शक्तिशाली नर सहित भगवान नारायण ने जब मोहिनी रूप धारण करके दानवेन्द्रों के हाथ से अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान विष्णु से अमृत ले लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्ध की सम्भावना हो गयी थी। जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृत का पान कर रहे थे, ठीक उसी समय, राहु नामक दानव ने देवता रूप में आकर अमृत पीना आरम्भ किया। वह अमृत अभी उस दानव के कण्ठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने देवताओं के हित की इच्छा से उसका भेद बतला दिया।तब चक्रधारी भगवान श्रीहरि ने अमृत पीने वाले उस दानव का मुकुटमण्डित मस्तक चक्र द्वारा बल पूर्वक काट दिया। चक्र से कटा हुआ दानव का महान मस्तक पर्वत के शिखर सा जान पड़ता था। वह आकाश में उछल-उछल कर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा। पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित समूची पृथ्वी को कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा। तभी से राहु के मुख ने चन्द्रमा और सूर्य के साथ भारी एवं स्थायी बैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनों पर ग्रहण लगाता है। (देवताओं को अमृत पिलाने के बाद) भगवान श्रीहरि ने भी अपना अनुपम मोहिनी रूप त्यागकर नाना प्रकार के भयंकर अस्त्र-शस्त्रों द्वारा दानवों को अत्यन्त कम्पित कर दिया। फिर तो क्षार सागर के समीप देवताओं और असुरों का सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया। दोनों दलों पर सहस्त्रों, तीखी धार वाले बड़े-बड़े भालों की मार पड़ने लगी। तेज नोक वाले तोमर तथा भाँति-भाँति शस्त्र बरसने लगे। भगवान के चक्र से छिन्न-भिन्न तथा देवताओं के खंग शक्ति और गदा से घायल हुए असुर मुख से अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वी पर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्ण की मालाओं से विभूषित दानवों के सिर भयंकर पट्टिशों से कटकर निरन्तर युद्ध भूमि में गिर रहे थे। वहाँ खून से लथपथ अंग वाले मरे हुए महान असुर, जो समर भूमि मे सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत शिखरों के समान जान पड़ते थे। संध्या के समय जल- सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक दूसरे के शस्त्रों से कटने वाले सहस्त्रों योद्धाओं का हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूँज उठा। समरांगण में दूरवर्ती देवता और दानव लोहे के तीखें परिघों से एक दूसरे पर चोट करते थे और निकट आ जाने पर आपस में मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रतयाघात का शब्द मानो सारे आकाश में गूँज उठा। उस रणभूमि में चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि ‘टुकड़े-टुकडे़ कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो।' इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान विष्णु के दो रूप नर और नारायण देव भी युद्ध भूमि में आ गये। भगवान नारायण ने वहाँ नर के हाथ में दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानव संहारक दिव्यचक्र का चिन्तन किया। चिन्तन करते ही शत्रुओं को संताप देने वाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाश मार्ग से उनके हाथ में आ गया। वह सूर्य एवं अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्र की गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किन्तु वह युद्ध में शत्रुओं के लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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