महाभारत आदि पर्व अध्याय 124 श्लोक 15-28
चतुर्विंशत्यधिकशततम (124) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
जनमेजय ! यह देख शोकातुर माद्री ने कुन्ती से कहा- बहिन ! आप अकेली ही यहां आयें। बच्चों को वहीं रहने दें ।। माद्री का यह वचन सुनकर कुन्ती ने सब बालकों को वहीं रोक दिया और हाय ! मैं मारी गयी इस प्रकार आर्तनाद करती हुई सहसा माद्री के पास आ पहुंची । आकर उसने देखा, पाण्डु और माद्री धरती पर पड़े हुए हैं। यह देख कुन्ती के सम्पूर्ण शरीर में शोकाग्नि व्यात हो गयी और वह अत्यन्त दुखी होकर विलाप करने लगी- । माद्री ! मैं सदा वीर एवं जितेन्द्रिय महाराज की रक्षा करती आ रही थी। उन्होंने मृग के शाप की बात जानते हुए भी तुम्हारे साथ बलपूर्वक समागम कैसे किया? । माद्री ! तुम्हें तो महाराज की रक्षा करनी चाहिये थी। तुमने एकान्त में उन्हें लुभाया क्यों? । वे तो उस शाप का चिन्तन करते हुए सदा दीन और उदास बने रहते थे, फिर तुझको एकान्त में पाकर उनके मन में कामजनित हर्ष कैसे उत्पन्न हुआ ? । बाह्रीक राजकुमारी ! तुम धन्य हो, मुझसे बड़ भागिनी हो; क्योंकि तुमने हर्षोल्लास से भरे हुए महाराज के मुखचन्द्र का दर्शन किया है । माद्री बोली- महारानी ! मैंने रोते-विलखते बार-बार महाराज को रोकने की चेष्टा की; परंतु वे तो उस शाप जनित दुर्भाग्य को मोह के कारण मानो सत्य करना चाहते थे, इसलिये अपने-आप को रोक न सके । वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! माद्री का यह वचन सुनकर कुन्ती शोकाग्नि ने संतप्त हो जड़ से कटे हुए वृक्ष की भांति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी और गिरते ही मूर्च्छा आ जाने के कारण निश्चेष्ट पड़ी रही, हिल-डुल भी ना सकी। वह मूर्च्छावश अचेत हो गयी थी। माद्री ने उसे उठाया और कहा- बहिन ! आइये, आइये ! यों कहकर उसने कुन्ती को कुरुराज पाण्डु का दर्शन कराया । कुन्ती उठकर पुन: महाराज पाण्डु के चरणों में गिर पड़ी। महाराज के मुख पर मुस्कराहट थी और ऐसा जान पड़ता था मानो वे अभी-अभी कोई बात कहने जा रहे हैं। उस समय मोहवश उन्हें हृदय ले लगाकर कुन्ती विलाप करने लगी। उसकी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो गयी थीं। इसी प्रकार माद्री भी राजा का आलिंगन करके करुण विलाप करने लगी । इस प्रकार मृत्यु शय्या पर पड़े हुए पाण्डु के पास चारणों सहित ॠषि-मुनि जुट आये और शोकवश आंसू बहाने लगे। अस्ताचल को पहुंचे हुए सूर्य तथा एकदम सूखे हुए समुद्र की भांति नरश्रेष्ठ पाण्डु को देखकर सभी महर्षि शोकमग्न हो गये। उस समय ॠषियों को तथा पाण्डु पुत्रों को समान रूप से शोक का अनुभव हो रहा था। ब्राह्मणों ने पाण्डु की दोनों सती-साध्वी रानियों को समझा-बुझाकर बहुत आश्वासन दिया, तो भी उनका विलाप बंद नहीं हुआ । कुन्ती बोली- हा ! महाराज ! आप हम दोनों को किसे सौंपकर स्वर्गलोक में जा रहे हैं। हाय ! मैं कितनी भाग्यहीना हूं। मेरे राजा ! आप किस लिये अकेली माद्री से मिलकर सहसा काल के गाल में चले गये। मेरा भाग्य नष्ट हो जाने के कारण ही आज वह दिन देखना पड़ा है । प्रजानाथ ! युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव- इन प्यारे पुत्रों को किसके जिम्मे छोड़कर आप चले गये? भारत ! निश्चय ही देवता आपका अभिनन्दन करते होंगे; क्योंकि आपने ब्राह्मणों की मण्डली में रहकर कठोर तपस्या की है । अजमीढ़- कुलनन्दन ! आपके पूर्वजों ने पुण्य-कर्मों द्वारा जिस गति को प्राप्त किया है, उसी शुभ स्वर्गीय गति को आप हम दोनों पत्नियों के साथ प्राप्त करेंगे ।। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! इस प्रकार अत्यन्त विलाप करके कुन्ती और माद्री दोनों अचेत हो पृथ्वी पर गिर पड़ीं। युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डव वेद विद्या में पारंगत हो चुके थे, वे भी पिता के समीप जाकर संज्ञाशून्य हो पृथ्वी पर गिर पड़े। सभी पाण्डव पाण्डु के चरणों को हृदय से लगाकर विलाप करने लगे । कुन्ती ने कहा- माद्री ! मैं इनकी ज्येष्ठ धर्म पत्नी हूं, अत: धर्म के ज्येष्ठ फल पर भी मेरा ही अधिकार है। जो अवश्यम्भावी बात है, उससे मुझे मत रोको। मैं मृत्यु के वश में पड़े हुए अपने स्वामी का अनुगमन करूंगी। अब तुम इन्हें छोड़कर उठो और इन वच्चों का पालन करो। पुत्रों को पाकर मेरा लौकिक मनोरथ पूर्ण हो चुका है; अब मैं पति के साथ दग्ध होकर वीर पत्नी का पद पाना चाहती हूं । माद्री बोली- रणभूमि से कभी पीठ न दिखाने वाले अपने पतिदेव के साथ मैं ही जाऊंगी; क्योंकि उनके साथ होने वाले कामभोग से मैं तृप्त नहीं हो सकी हूं। आप बड़ी बहिन हैं, इसलिये मुझे आपको आज्ञा प्रदान करनी चाहिये । वे भरतश्रेष्ठ मेरे प्रति आसक्त हो मुझसे समागम करके मृत्यु को प्राप्त हुए हैं; अत: मुझे किसी प्रकार परलोक में पहुंचकर उनकी उस कामवासना की निवृत्ति करनी चाहिये ।। आर्ये ! मैं आपके पुत्रों के साथ अपने सगे पुत्रों की भांति बर्ताव नहीं कर सकूंगी। उस दशा में मुझे पाप लगेगा । अत: आप ही जीवित रहकर मेरे पुत्रों का भी अपने पुत्रों के समान ही पालन कीजियेगा। इसके सिवा ये महाराज मेरी ही कामना रखकर मृत्यु के अधीन हुए हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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