महाभारत शल्य पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-18

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पन्चाशत्तम (50) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: पन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


आदित्य तीर्थ की महिमा के प्रसंग में असित देवल तथा जैगीषव्य मुनि का चरित्र

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! प्राचीन काल की बात है, उसी तीर्थ में तपस्या के धनी धर्मात्मा असित देवल मुनि गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर निवास करते थे । वे सदा धर्मपरायण, पवित्र, जितेन्द्रिय, किसी को भी दण्ड न देने वाले, महातपस्ती तथा मन, वाणी और क्रिया द्वारा सभी जीवों के प्रति समान भाव रखने वाले थे । महाराज ! उन में क्रोध नहीं था। वे अपनी निन्दा और स्तुति को समान समझते थे। प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में उनकी चित्तवृत्ति एक सी रहती थी। वे यमराज की भांति सबके प्रति सम दृष्टि रखते थे । सोना हो या मिटटी का ढेला, महातपस्वी देवल दोनों को समान दृष्टि से देखते थे और प्रतिदिन देवताओं तथा ब्राह्मणों सहित अतिथियों का पूजन एवं आदर-सत्कार करते थे । वे मुनि सदा ब्रह्मचर्य पालन में तत्पर रहते थे। उन्हें सब समय धर्म का ही सबसे बड़ा सहारा था। महाभाग ! एक दिन बुद्धिमान जैगीषव्य मुनि जो संन्यासी थे, योग का आश्रय लेकर उस तीर्थ में आये और एकाग्रचित्त होकर वहां रहने लगे । राजन् ! महाराज ! वे महातेजस्वी और महातपस्वी जैगीषव्य सदा योगपरायण रहकर सिद्धि प्राप्त कर चुके थे तथा देवल के ही आश्रम में रहते थे । यद्यपि महामुनि जैगीषव्य उस आश्रम में ही रहते थे तथापि देवल मुनि उन्हें दिखाकर धर्मतः योग-साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनों को वहां रहते हुए बहुत समय बीत गया । जनमेजय ! तदनन्तर कुछ काल तक ऐसा हुआ कि देवल मुनिवर जैगीषव्य को हर समय नहीं देख पाते थे। धर्म के ज्ञाता बुद्धिमान संन्यासी जैगीषव्य केवल भोजन या भिक्षा लेने के समय देवल के पास आते थे । भारत ! संन्यासी के रूप में वहां आये हुए महामुनि जैगीषव्य को देखकर देवल उनके प्रति अत्यन्त गौरव और महान् प्रेम प्रकट करते तथा यथाशक्ति शास्त्रीय विधि से एकाग्रचित्त हो उनका पूजन ( आदर-सत्कार ) किया करते थे। बहुत वर्षो तक उन्होंने ऐसा ही किया । नरेश्वर ! एक दिन महातेजस्वी जैगीषव्य मुनि को देख कर महात्मा देवल के मन में बड़ी भारी चिन्ता हुई । उन्होंने सोचा, ‘इनकी पूजा करते हुए मुझे बहुत वर्ष बीत गये; परंतु ये आलसी भिक्षु आज तक एक बात भी नहीं बोले’। यही सोचते हुए श्रीमान् देवल मुनि कलश हाथ में लेकर आकाश मार्ग से समुद्र तट की ओर चल दिये । भारत ! नदीपति समुद्र के पास पहुंचते ही धर्मात्मा देवल ने देखा कि जैगीषव्य वहां पहले से ही गये हैं । तब तो अमित तेजस्वी महर्षि असित देवल को चिन्ता के साथ-साथ आश्चर्य भी हुआ। वे सोचने लगे, ‘ये भिक्षु यहां पहले ही कैसे आ पहुंचे ? इन्होंने तो समुद्र में स्नान का कार्य भी पूर्ण कर लिया’ । जनमेजय ! फिर उन्होंने समुद्र में विधिपूर्वक स्नान करके पवित्र हो अपने योग्य मन्त्र का जप किया। जप आदि नित्य कर्म पूर्ण करके श्रीमान् देवल जल से भरा हुआ कलश लेकर अपने आश्रम पर आये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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