महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 106-116
एकाधिकत्रिशततम (301) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
कुन्तीनन्दन ! ऐसी प्रसिद्धि है कि यह सांख्यशास्त्र ही उस निराकार परमात्मा का आकर है। भरतश्रेष्ठ ! जितने ज्ञान हैं, वे सब सांख्य की ही मान्यता का प्रतिपादन करते हैं । पृथ्वीनाथ ! इस भूतलपर स्थावर और जंगम-दो प्रकार के प्राणी उपलब्ध होते हैं।। उनमें भी जंगम ही श्रेष्ठ हैं । राजन ! नरेश्वर ! महात्मा पुरूषों में, वेदोंमें, सांख्यों (दर्शनों) में, योगशास्त्र में तथा पुराणों में जो नाना प्रकार का उत्तम ज्ञान देखा जाता है, वह सब सांख्य से ही आया है ।नरेश ! महात्मन ! बड़े-बड़े इतिहासों में, सत्पुरूषों द्वारा सेवित अर्थशास्त्र में तथा इस संसार में जो कुछ भी महान देखा गया है, वह सब सांख्य ही प्राप्त हुआ है । राजन ! प्रत्यक्ष प्राप्त मन और इन्द्रियों का संयम, उतम बल, सूक्ष्मज्ञान तथा परिणामें सुख देने वाले जो सूक्ष्म तप बतलाये गये हैं, उन सबका सांख्यशास्त्र में यथावत वर्णन किया गया है । कुन्तीकुमार ! यदि साधन में कुछ त्रुटि रह जाने के कारण सांख्य का सम्यक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ हो तो भी सांख्ययोग के साधक देवलोक में अवश्य जाते हैं और वहां निरन्तर सुख से रहते हुए देवताओं को आधिपत्य पाकर कृतार्थ हो जाते हैं। तदनन्तर पुण्यक्षय के पश्चात वे इस लोक में आकर पुन: साधन के लिये प्रयत्नशील ब्राह्मणों के यहां जन्म ग्रहण करते हैं । पार्थ ! सांख्यज्ञानी शरीर-त्याग के पश्चात परमदेव परमात्मा में उसी प्रकार प्रवेश कर जाते हैं, जैसे देवता स्वर्ग मे । पृथ्वीनाथ ! अत: शिष्ठ पुरूषों द्वारा सेवित परम पूजनीय सांख्यशास्त्र में वे सभी द्विज अधिक अनुरक्त रहते हैं । राजन ! जो इस सांख्य-ज्ञान में अनुरक्त हैं, वे ही ब्राह्मण प्रधान हैं, अत: उन्हें मृत्यु के पश्चात कभी पशु पक्षी आदि की योनि में जाना पड़ा हो, ऐसा नहीं देखा गया है। वे कभी नरकादि अधोगति को भी नहीं प्राप्त होते हैं तथा उन्हें पापाचारियों के बीच में भी नहीं रहना पड़ता है । सांख्य का ज्ञान अत्यन्त विशाल और परम प्राचीन है। यह महासागर के समान अगाध, निर्मल, उदार भावों से परिपूर्ण और अतिसुन्दर है। नरनाथ ! परमात्मा भगवान नारायण इस सम्पूर्ण अप्रमेय सांख्य-ज्ञान को पूर्णरूप से धारण करते हैं । नरदेव ! यह मैंने तुम से सांख्य का तत्व बतलाया है। इस पुरातन विश्व के रूप में साक्षात भगवान नारायण ही सर्वत्र विराजमान हैं। वे ही सृष्ठि के समय जगत की सृष्टि और संहार काल में उसको अपने में विलीन कर लेते हैं । इस प्रकार जगत को अपने शरीर के भीतर ही स्थापित करके वे जगत के अन्तरात्मा भगवान नारायण एकार्णव के जल में शयन करते हैं । इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में सांख्यतत्व का वर्णनविषयक तीन सो एकवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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