महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 325 श्लोक 36-42

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पञ्चविंशत्‍यधिकत्रिशततम (325) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चविंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 36-42 का हिन्दी अनुवाद


उन्‍होंने पाद्य, अघ्‍य आदि निवेदन करके उत्‍तम विधि से शुकदेवजी का पूजन किया और उन्‍हें समयानुकूल स्‍वादिष्‍ठ अन्‍न भोजन कराकर पूर्णत: तृप्‍त किया। तात ! भरतनन्‍दन ! जब वे भोजन कर चुके, तब वे वारांगनाएँ उन्‍हें साथ लेकर अन्‍त:पुर के उस सुरम्‍य कानन—प्रमदावन की सैर कराने और वहाँ की एक-एक वस्‍तु को दिखाने लगीं।उस समय वे हँसती, गाती तथा नाना प्रकार की सुन्‍दर क्रीड़ाएँ करती थीं । मन के भाव को समझने वाली वे सु‍न्‍दरियाँ उन उदारचित्‍त शुक देवजी की सब प्रकार से सेवा करने लगीं। परंतु अरणिसम्‍भव शुकदेवजी का अन्‍त: करण पूर्णत: शुद्ध था । वे इन्द्रियों और क्रोध पर विजय पा चुके थे । उन्‍हें न तो किसी बात पर हर्ष होता था और न वे किसी पर क्रोध ही करते थे । उनके मन में किसी प्रकार का संदेह था और वे सदा अपने कर्तव्‍य का पालन किया करते थे। उन सुन्‍दरी रमणियों ने देवताओं के बैठने योग्‍य एक दिव्‍य पलंग, जिसमें रत्‍न जडे़ हुए थे और जिस पर बहुमूल्‍य बिछौने बिछे थे, शुकदेवजी को सोने के लिये दिया। परंतु शुकदेवजी ने पहले हाथ-पैर धोकर संध्‍योपासना की । उसके बाद पवित्र आसन पर बैठकर वे मोक्षतत्‍व का ही विचार करने लगे । रात के पहले पहर में वे ध्‍यानस्‍थ होकर बैठे रहे। फिर रात्रि के मध्‍यभाग (दूसरे और तीसरे पहर) में प्रभावशाली शुक ने यथोचित निद्रा को स्‍वीकार किया। तदनन्‍तर जब दो घड़ी रात बाकी रह गयी, उस समय ब्रह्मावेला में वे पुन: उठ गये और शौच-स्‍नान करने के अनन्‍तर बुद्धिमान् शुकदेव फिर परमात्‍मा के ध्‍यान में ही निमग्‍न हो गये । उस समय भी वे सुन्‍दरी स्त्रियाँ उन्‍हें घेरकर बैठी थीं। भरतनन्दन ! इस विधि से अपनी मर्यादा से च्युत न होन वाले व्यासनन्दन शुक ने दिन का शेष भाग और समूची रात उस राजभवन में रहकर व्यतीत की।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक की उत्पत्तिविषयक तीन सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।