महाभारत सभा पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-14

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त्रयोविंश (23) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

जरासंध का भीमसेन के साथ युद्ध का निश्चय, भीम और जरासंध का भयानक युद्ध और जरासंध की थकावट

वैशम्पायनजी कहते हैं। जनमेजय! राजा जरासंध ने अपने मन में युद्ध का निश्चय कर लिया है, यह देख बोलने में कुशल यदुनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा । श्रीकृष्ण ने पूछा- राजन्! हम तीनों में से किस एक व्यक्ति के साथ युद्ध करने के लिये तुम्हारे मन में उत्साह हो रहा है? हममें से कौन तुम्हारे साथ युद्ध के लिये तैयार है? । उनके इस प्रकार पूछने पर महातेजस्वी मगधनरेश राजा जरासंध ने भीमसेन के साथ युद्ध करना स्वीकार किया । जरासंध को युद्ध करने के लिये उत्सुक देख उसके परोहित गोरोचन, माला, अन्यान्य मांगलिक वस्तुएँ तथा उत्तम-उत्तम ओषधियाँ, जो पीड़ा के समय भी सुख देने वाली और मूर्च्छाकाल में भी होश बनाये रखने वाली थी, लेकर उसके पास आये। यशस्वी ब्राह्मण के द्वारा स्वस्तिवाचन सम्पन्न हो जाने पर जरासंध क्षत्रिय धर्म का स्मरण करके युद्ध के लिये कमर कसकर तैयार हो गया । जरासंध ने किरीट उतारकर केशों को कसकर बाँध लिया। तत्पश्चात वह युद्ध के लिये उठकर खड़ा हो गया, मानो महासागर अपनी मर्यादा तटवर्तिनी भूमि को लाँघ जाने को उद्यत हो गया हो । उस समय भयानक पराक्रम करने वाले बुद्धिमान राजा जरासंध ने भीमसेन से कहा- भीम! आओ, मैं तुमसे युद्ध करूँगा, क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष से लड़कर हारना भी अच्छा है । ऐसा कहरक महातेजस्वी शत्रुदमन जरासंध भीमसेन की ओर बढ़ा, मानो बल नामक असुल इन्द्र से भिड़ने के लिये बढ़ा जा रहा हो ।तदनन्तर बलवान् भीमसेन भी श्रीकृष्ण से सलाह लेकर स्वस्तिवाचन के अनन्तर युद्ध की इच्छा से जरासंध के पास आ धमके । फिर तो मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष और उत्साह में भरकर एक दूसरे को जीतने की अच्दा से अपनी भुजाओं से ही आयुध का काम लेते हुए परस्पर भिड़ गये । पहल उन दोनों ने हाथ मिलाये। फिर एक दूसरे के चरणों का अभिवन्दन किया। तत्पश्चात् भुजाओं के मूलभाग के संचालन से वहाँ बंधे हुए वाजूबंद की डोर को हिलाते हुए वे दोनों वीर वहीं ताल ठोंकने लगे । राजन्! फिर वे दोनों हाथों से एक दूसरे के कंधे पर बार-बार चोट करते हुए अंग-अंग से भिड़कर आपस में गुँथ गये तथा एक दूसरे को बार-बार रगड़ने लगे । वे कभी हाथों को बड़े वेग से सिकोड़ लेते, कभी फैला देते, कभी ऊपर नीचे चलाते और कभी मुठ्ठी बाँध लेते। इस प्रकार चित्रहस्त आदि दाँव दिखाकर उन दोनों ने कक्षा बन्ध का प्रयोग किया अर्थात कए दूसरे की काख या कमर में दोनों हाथ डालकर प्रतिद्वन्द्वी को बाँध लेने की चेष्टा की। फिर गले में और गाल में ऐसे-ऐसे हाथ मारने लगे कि आग की चिनगारी सी निकलने लगी और वज्रपात का सा शब्द होने लगा । तत्पश्चात वे ‘बाहुपाश’ और ‘चरणपाश’ आदि दाँव पेंचों से काम लेते हुए एक दूसरे पर पैरों से ऐसा भीषण प्रहार करने लगे कि शरीर की नस नाड़ियाँ तक पीड़ित हो उठीं। तदनन्दर दोनों ने दोनों पर ‘पूर्णकुम्भ’ नाम दाँव लगाया (दोनों हाथों की अंगलियों को परस्पर गूँथकर उन हाथों की हथेलियों से शत्रु के सिर को दबाया) इसके बाद ‘उरोहस्त’ का प्रयोग किया (छाती पर थप्पड़ मारना शुरु कर दिया) ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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