उभयलिंगी

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लेख सूचना
उभयलिंगी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 128
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

उभयलिंगी जीव या पादप उसे कहते हैं जो एक ही समय अथवा विभिन्न समयों पर स्त्री तथा पुरुष दोनों प्रकार की प्रजननकोशिकाएँ उत्पन्न करता है। इसके स्पष्ट उदाहरण जंतुओं तथा पादपों, दोनों में मिलते हैं, जैसे केचुओं में तथा कई प्रकार की काइयों में। यहाँ नर और मादा प्रजनन अंग एक ही व्यक्ति में काम करते हैं। यद्यपि जंतुओं और पौधों के जीवनचक्रों में अत्यधिक अंतर है, तब भी उन पौधों को उभयलिंगी कहते हैं, जिनमें नर और मादा दोनों प्रकार के फूल लगते हैं, जैसे कुम्हड़ा, खीरा में। जंतु संसार में नर और मादा अंग अधिकतर विभिन्न व्यक्तियों में रहते हैं।

जंतुओं में उभयलिंगी दो प्रकार के होते हैं-(1) कार्यकारी तथा (2) अकार्यकारी। अकार्यकारी उभयलिंगत्व कई रूपों का होता है। नर भेक (टोड) में अंडकोष के अतिरिक्त एक अविकसित अंडाशय भी होता है। कुछ कठिनियों (क्रस्टेशिया) या तिलचट्टों के अंडकोषों में अकार्यकारी अंडे भी रहते हैं। मीनवेधियों (हैगफ़िश) में ऐसे व्यक्तियों से लेकर जिनके कपूरा में एक अंड होता है, ऐसे व्यक्ति तक होते हैं जिनके अंडाशय के भीतर कपूरा का एक भाग होता है।

कार्यकारी उभयलिंगत्व के उदाहरण ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रजनन के विचार से (जेनेटिकली) एक लिंग (सेक्स) के हैं, परंतु उनके जननपिंड (गोनैड्स) से निकली हुई उपज बदलती रहती है, उदाहरणत: कुछ घोंघों (स्नेल्स) और शुक्तियों (आयस्टर्स) में ऐसे मादा जीव होते हैं जो पहले शुक्राणु उत्पन्न करते हैं और पीछे अंडे।

लाइमैक्स मैक्सिमस नामक मृदु मंथर प्रथम मादा, फिर क्रमानुसार उभयलिंगी, नर उभयलिंगी और फिर मादा का कार्य करता है। अभी तक पता नहीं चल सका है कि किस कारण इस प्रकार लिंगपरिवर्तन होता है। कुछ समूहों में पूरा जीव ही बदल जाता है; उदाहरणत: कुछ समपाद (आइसोपाड) क्रस्टेशिया के डिंभ (लार्वा), जब तक वे स्वतंत्र जीवन व्यतीत करते हैं, नर रहते हैं, परंतु अन्य क्रस्टेशिया पर परोपजीवी होने के पश्चात्‌ वे मादा हो जाते हैं। दूसरी ओर, परिस्थिति में बिना कोई उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई पड़े ही, ट्राइसोफ़िस ऑरेटस नामक सामुद्रिक मछली पारी पारी से शुक्राणु और डिंभाणु उत्पन्न करती है।

उभयलिंगियों में स्वयंसेचन अत्यंत असाधारण है, जिसका कारण यह होता है कि नर तथा मादा युग्मक (गैमीट) विभिन्न समयों पर परिपक्व होते हैं, या उनके शरीर की आंतरिक संरचना ऐसी होती है कि स्वयंसेचन असंभव होता है।

कार्यकारी उभयलिंगत्व प्रजीवों (प्रोटोज़ोआ) से लेकर आद्य रज्जुमंतों (कारडेट्स) तक, अर्थात्‌ केवल निम्न कोटि के जंतुओं में, होता है, परंतु उच्च कोटि के कशेरुक-दंडियों में यह गुणधर्म प्राय: अज्ञात है। ऐसा संभव जान पड़ता है कि विशेष परिस्थितियों से उभयलिंगत्व उत्पन्न होता है। यह भी अनुमान किया जाता है कि उभयलिंगत्व वंशनाश से सुरक्षा करता है।

मनुष्यों में वास्तविक उभयालिंगी नहीं देखे गए हैं, यद्यपि अंगों का कुविकास यदाकदा दोनों लिंगों की विद्यमानता का आभास उत्पन्न करता है। कभी कभी तो परिस्थिति ऐसी रहती है कि नवजात शिशु के लिंग (सेक्स) का पता ही नहीं चलता।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-आर.गोल्डश्मिट : मिकैनिज्म़ ऐंड फ़िजिऑलोजी ऑव सेक्स डिटर्मिनेशन (1923); एम.जे.डी.ह्वाइट : ऐनिमल साइटॉलोजी ऐंड एवोल्यूशन (1945)।