केवल

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लेख सूचना
केवल
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 123
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

केवल जैन दर्शन के अनुसार विशुद्धतम ज्ञान। इस ज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म होते हैं-मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनवरण तथा अंतराय। इन चारों कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान का उदय होता हैं। इन कर्मों में सर्वप्रथम मोहकर तदनंतर इतर तीनों कर्मों का एक साथ ही युगपत्‌ क्षय होता है। केवलज्ञान का विषय है-सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय[१]। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, ऐसा कोई पर्याय नहीं जिसे केवलज्ञान से संपन्न व्यक्ति नहीं जानता। फलत: आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्णतम विकास या आविर्भाव केवलज्ञान में लक्षित होता हैं। यह पूर्णता का सूचक ज्ञान है। इसका उदय होते ही अपूर्णता से युक्त, मति, श्रुत आदि ज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो जाते हैं। उस पूर्णता की स्थिति में यह अकेले ही स्थित रहता है और इसी लिये इसका यह विशेष अभिधान है।[२]वह ज्ञान जो भ्रांतिशून्य और विशुद्ध हो। सांख्यदर्शन के अनुसार इस प्रकार का ज्ञान तत्वाभ्यास से प्राप्त होता है। यह ज्ञान मोक्ष का साधक होता हैं। इस प्रकार का ज्ञान होने पर यह बोध हो जाता है कि न तो मैं कर्ता हूँ, और न किसी से मेरा कोई संबंध है और न मैं स्वयं पृथक्‌ कुछ हूँ।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वद्रव्य पर्यायेषु केवलस्य-तत्वार्थसूत्र, 1।30
  2. सं.ग्रं.-डा. सोहनलाल मेहता : जैनदर्शन, प्रकाशक, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1959; महेंद्रकुमार न्यायाचार्य : जैनदर्शन, प्रकाशक श्री गणेशप्रसाद वर्णी, जैन ग्रंथमाला, भदैनीघाट, काशी, 1955। (बलदेव उपाध्याय)