क्लीबाणुक

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लेख सूचना
क्लीबाणुक
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 237
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक न्यूक्लियर फिजिक्स

क्लीबाणुक (Neutrino) यह एक नया कण (Particle) है जिसका सर्वप्रथम अनुसंधान सन्‌ 1930 में पौली ने किया था। इस कण का प्रथम सैद्धांतिक आधार प्रसिद्ध भौतिकीविद्, फर्मी ने सन्‌ 1934 में बतलाया। क्लीबाणुक के लिये मान लिए गए गुण संक्षेप में निम्नलिखित हैं :

(क) आवेशरहित।

(ख) न्यूनतम भार। लागर एवं मौफात ने सन्‌ 1952 में भार का अनुमान लगाया और बतलाया कि क्लीबाणक का भार इलेक्ट्रान के भार के 0.05 प्रतिशत से भी कम है ।

(ग) म्रमि (स्पिन Spin) 1/2 (1/p) है।

(घ) फर्मी-डिराक सांख्यिकी (स्टाटिस्टिक्स statistics) का अनुसरण करता है।

(ङ) द्वध्रुिवीघूर्ण (डाइपोल मोमेंट dipole moments) यदि है, तो 10-7 वोर मैगनेतान से भी कम है।

उन अभिक्रियाओं की, जिनसे बीटा किरणें मिलती है, जाँच करते समय यह देखा गया कि निकले हुए कणों का ऊर्जा वर्णक्रम (Spectrum) ऐल्फ़ा किरण के ऊर्जा वर्णक्रम से भिन्न है। ऐल्फ़ा किरणें पृथक्‌ रेखा वर्णक्रम के अनुसार मिलती हैं, पर बीटा किरणें उनसे पूर्णत: भिन्न प्रकार के संतत वर्णक्रम का अनुकरण करती हैं। रेडियम-ई (Radium E) के लिये प्राप्त बीटा किरण का ऊर्जा वर्णक्रम चित्र में दिखाया गया है (दे. चित्र)। बीटा किरणों की ऊर्जा का शून्य से लेकर अधिकतम मान ई अ के बीच कोई भी मान हो सकता है। ऐसा ही संतत वर्णक्रम उन अभिक्रियाओं में भी मिलता है जिनसे पॉज़िट्रान प्राप्त होते हैं।

चित्र:Neutrino.jpg


बीटा किरणों द्वारा दिए संतत वर्णक्रम का सैद्धांतिक आधार स्थिर करना बहुत समय तक कठिन समस्या बना रहा। मान लिया जाय कि किसी नाभिक क से, जो एक विशेष ऊर्जा के तल पर है, एक बीटा किरण निकलती है और इस अभिक्रया द्वारा एक दूसरा नाभिक ख बनता है, जो पुन: एक विशेष ऊर्जा के तल पर है। पुज एवं ऊर्जास्थिरता के सिद्धांत: के अनुसार, निकले हुए बीटा कण की ऊर्जा नाभिक क एवं ख के ऊर्जातलों क अंतर के बराबर होनी चाहिए। यह ऊर्जा सिद्धांत सर्वदा ई अ (चित्र देंखें) के तुल्य प्राप्त होती है। परीक्षा से कण शुन्य से लेकर ई अ तक सभी मान की ऊर्जा लेकर निकलते हैं। ऐसा प्रतीत हाता है कि ऐसी अभिक्रियाओं में ऊर्जा का कुछ अंश लुप्त हो जाता है और पुंज एवं ऊर्जा स्थिरता के सिद्धांत का अतिक्रमण होता है।

इस समस्या को फर्मी ने बीटा किरण के बाद वाली अपनी क्लीबाणुक उपकल्पना देकर सर्वप्रथम सफलतापूर्वक सुलझाया। उन्होंने यह सुझाव दिया कि बीटा किरण देने वाली अभिक्रियाओं में एक और कण क्लीबाणुक भी प्राप्त होता है और वही लुप्त प्रतीत होने वाली ऊर्जा को ग्रहण कर लेता है। आज तक परीक्षा से क्लीबाणुक की पहचान नहीं हो पाई है, फलत: इसके गुण ऐसे होने चाहिए जिनके कारण इसकी पहचान अति कठिन हो। इसलिये यह धारणा की गई कि क्लीबाणुक आवेश रहित है और इसका भार इलेक्ट्रान की तुलना में अतिन्यून है, शुन्य के ही लगभग है। क्लीबाणुक का आवेशरहित होना, बीटा किरण की अभिक्रिया के लिये आवेशस्थिरता के सिद्धांत के अनुसार है। क्लीबाणुक परिकल्पना के अनुसार, बीटा किरण अभिक्रिया में प्राप्त हुई ऊर्जा की मात्रा इर् अ है। यह ऊर्जा बीटा कण क्लीबाणुक एवं प्रतिक्षिप्त नाभिक को प्राप्त होती है। तीन कणों में ऊर्जा विभाजन अनेकानेक भाँति हो सकता है, इसलिये संतत वर्णक्रम बन जाता है।

जब एक नाभिक से बीटा किरण प्राप्त होती है, तब नाभिक के आवेश का इकाई द्वारा परिवर्तन होती है, तब नाभिक के आवेश का इकाई द्वारा परिवर्तन होता है, भार अपरिवर्तित रहता है। यदि एक इलेक्ट्रान प्राप्त हो, तो नाभिक के प्रोटान की संख्या में इकाई की वृद्धि होती है तथा क्लीबाणु इकाई द्वारा संख्या इकाई द्वारा कम हो जाती है। उसी भाँति यदि बीटा किरण अभिक्रिया में एक पॉजिट्रॉन प्राप्त हो तो प्रोटान संख्या इकाई द्वारा कम तथा क्लीबान संख्या में इकाई की वृद्धि होती है। इन बीटा रूपांतरों को निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है:

बीटा _उत्सर्जन : न्यूट्रान प्रोटान +इलेक्ट्रान +क्लीबाणुक.........(क)

बीटा +उत्सर्जन : प्रोटान न्यूट्रान +पॉज़िट्रान +क्लीबाणुक..........(ख)

इन अभिक्रियाओं में न्यूट्रान को प्रोटान, इलेक्ट्रान एवं क्लीबाणुक से बना हुआ नहीं माना गया है। बीटा-उत्सर्जन के समय, न्यूट्रान का तीन कणों में तत्क्षण परिवर्तन हो जाता है। इसी प्रकार का निवर्तन बीटा +उत्सर्जन में प्रोटान में हो जाता है।

(क) एवं (ख) समीकरणों द्वारा क्लीबाणुक के अन्य गुणों के बारे में भी सूचना मिलती है। कोणीय गमता h/2 मान ली जाने पर ही उसकी (कोणीय गमता की) स्थिरता का नियम ठीक ठीक घटित होता है। उसी भाँति, सांख्यिकी के बारे में भी सूचना मिलती है। समीकरण (क) एवं (ख) में यदि सांख्यिकी की स्थिरता देखी जाय, तो यह नियम तभी सत्य ठहरता है जब क्लीबाणक फर्मी-डिराक सांख्यिकी का अनुसरण करे।

मेसॉन के अपक्षय की समस्याओं को हल करने के लिये भी क्लीबाणुक परिकल्पना का प्रयोग किया गया। म्यू-मेसॉन (meson) जब एक इलेक्ट्रान में परिवर्तित होता है तब बीटा-किरण अभिक्रिया की भाँति, म्रमि तथा ऊर्जा स्थिरता के नियम खंडित हो जाते हैं। इन नियमों की सत्यता के लिये निम्नलिखित विधि बतलाई गई :

म्यू-मेसॉन - बीटा कण + दो क्लीवाणुक..............(ग)

उसी प्रकार ऐल्फ़ा-मेसॉन अपक्षय निम्नलिखित समीकरण द्वारा दिखलाया जा सकता है।

ऐल्फा मेसॅान म्यू मेसॉन + क्लीबाणुक..............(घ)

(ग) एवं (घ) समीकरणों के विरूद्ध कोई संपरिक्षीय साक्ष्य नहीं है

इस भाँति क्लीबाणुक द्वारा बीटा किरण एवं मेसॉन के अपक्ष्य की समस्याओं का सामाधान हुआ है। इस कण के लिये सभी साक्ष्य अभी तक अप्रत्यक्ष ही हैं।[१][२]




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्रं.-(क) लांगर और मोफात : फ़िजिकल रिव्यू, अंक 88 पृ. 689, 1952।
  2. कापलान