ख़ुतन

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लेख सूचना
ख़ुतन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 325
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

ख़ुतन मध्य एशिया में चीनी तुर्किस्तान (सिंकियांग) की मरुभूमि (तकलामकान) के दक्षिणी सिरे पर स्थित नखलिस्तान के एक नगर (स्थिति : 370 18’ उत्तरी 800 2’ पूर्व)। जिस नखलिस्तान में यह स्थित है, वह यारकंद से 200 मील दक्षिण पूर्व है और अति प्राचीन काल से ही तारिम उपत्यकार के दक्षिणी किनारे वाले नखलिस्तान में सबसे बड़ा है। खुतन जिले को स्थानीय लोग इल्वी कहते हैं तथा इस नखलिस्तान के दो अन्य नगर युरुंगकाश और काराकाश तीनों एक 40 मील हरियाली लंबी पट्टी के रूप में कुन-लुन पर्वत के उत्तरी पेटे में हैं। इसकी हरियाली के साधन भुरुंगकाश और काराकाश नदियाँ हैं जो मिलकर खुतन नदी का रूप ले लेती है। खुतन नाम के संबंध में कहा जाता है कि वह कुस्तन (भूमि है स्तन जिसका) के नाम पर पड़ा है जिसे मातृभूमि से निर्वासित हो कर धरती माता के सहारे जीवनयापन करना पड़ा था।

खुतन पूर्ववर्ती हनवंश के काल में एक सामान्य सा राज्य था। किंतु प्रथम शती ई. के उत्तरार्ध में, जिस समय चीन तारिम उपत्यका पर अधिकर करने के लिए जोर लगा रहा था, अपनी भौगोलिक स्थिति-अर्थात्‌ सबसे बड़ा नखलिस्तान होने तथा पश्चिम जाने वाले दो मार्गों में अधिक दक्षिणी मार्ग पर स्थित होने के कारण मध्य एशिया और भारत के बीच एक जोड़नेवाली कड़ी के रूप में इसे विशेष महत्व प्राप्त हुआ। भारत के साथ इसका अत्यंत घनिष्ठ संबंध बहुत दिनों तक बना रहा। खुतन के मार्ग से ही बौद्ध धर्म चीन पहुँचा। एक समय खुतन बौद्ध धर्म की शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र था। वहाँ भारतीय लिपि तथा प्राकृत भाषा प्रचलित थी। वहाँ गुप्तकालीन अनेक बौद्ध विहार मिले हैं जिनकी भित्ति पर अजंता शैली से मिलती जुलती शैली के चित्र पाए गए हैं। काशगर से चीन तथा चीन से भारत आनेवाले सार्थवाह, व्यापारी खुतन होकर ही आते जाते थे। फाह्यान, सुंगयुन, युवानच्वांग और मार्कोपालो ने इसी मार्ग का अनुसरण किया था। यह सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान्‌ बुद्धसेना का निवासस्थान था।

अपनी समृद्धि और अनेक व्यापार मार्गों का केंद्र होने के कारण इस नगर को अनेक प्रकार के उत्थान पतन का सामना करना पड़ा। 70 ई. में सेनापति पानचाउ ने इसे विजित किया। और उत्तरवर्ती हनवंश के अधीन रहा। उसके बाद पुन: सातवीं शती में टांग वंश का इसपर अधिकार था। आठवीं शती में पश्चिमी तुर्किस्तान से आनेवाले अरबों ने और दसवीं शती में काशगरवासियों ने इसपर अधिकार किया। 13वीं शती में चंगेज खाँ ने उसपर कब्जा किया। पश्चात्‌ वह मध्य एशिया में मंगोलों के अधीन हुआ। इसी काल में मार्कोपोलो इस मार्ग से गुजरा था और उसने यहाँ की खेती, विशेष रूप से कपास की खेती तथा इसके व्यापारिक महत्व और निवासियों के वीर चरित्र की चर्चा की है।

हाल की शताब्दियों में यह चीनी मध्य एशिया में मुस्लिम सक्रियता का केंद्र रहा और 1864-65 में चीन के विरुद्ध हुए डंगन विद्रोह में इस नगर की प्रमुख भूमिका थी। 1878 में काशगर और खुतन ने प्रख्यात कृषि सेना को आत्मसमर्पण किया। फलस्वरूप वह पुन: चीन के अधिकार में चला गया। आजकल सिंकियांग प्रांत के अंतर्गत हैं।

यह क्षेत्र आज भी कृषि की दृष्टि से अपना महत्व रखता है। गेहूँ, चावल, जई, बाजरा और मक्का की यहाँ खेती होती है। कपास भी काफी मात्रा में उपजता है। फलों, में जैतुन, लूकाट, नाशपाती और सेब होते हैं। मेवे का भी काफी मात्रा में निर्यात होता है। रेशम के उद्योग के आनुषंगिक साधन के रूप में शहतूत की भी खेती की जाती है। इसके अतिरिक्त यहाँ कालीन और नमदे का भी उद्योग है। नदियों से लोग सोना छानते हैं। बहुत दिनों तक खुतन के यशद भी बहुत प्रसिद्ध थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ