गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 214

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

जब हम अपने इस प्राकृत जीवभाव के ऊपर उस परम आत्मा को देखे और पकड़े रहें जिसके और हमारे बीच में यह अहंकार एक बाधक आवरण और आंखों के आगे अंधेरा करने वाली छाया है। और, यह तभी हो सकता है जब हम उस एक आत्मा को अपने अंदर देखें जो प्रकृति के ऊपर अधिष्टित है और अपने व्यष्टिभूत जीव की सत्ता और चेतना को उस परम आत्मा की सत्ता और चेतना के साथ एक कर लें तथा अपनी व्यक्तिगत कार्यकारी प्रकृति को उस अद्वितीय परम संकल्प - शक्ति का एक यंत्र बना लें जिसकी इच्छा ही एकमात्र स्वाधीन इच्छा है। इसके लिये हमें त्रिगुण से ऊपर उठना होगा, त्रिगुणातीत होना होगा; क्योंकि यह आत्मा सत्वगुण के भी परे है। वहांतक कि चड़ाई सत्वगुण से होकर ही पूरी करनी होगी, पर हम उसके निकट तभी पहुंचेंगे जब सत्वगुण को पार कर जायेंगे ; हम अहंकार में से ही उसकी ओर जायेंगे, पर उसके पास पहुंचेंगे तभी जब अहंकार को छोड़ देगे। इच्छाओं में सबसे ऊंची , सबसे वेगवती , सबसे प्रबल और सबसे अधिक उल्लासमयी इच्छा ही हमें उसकी ओर ले जागेयी , पर उसमें हमारा स्थिर निश्चित वास तभी होगा जब सारी इच्छाएं हममें से झड़कर गिर जायेंगी। एक अवस्था वह आयेगी जब हमें मुक्ति की इच्छा से भी मुक्त होना होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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