गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 27

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गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

गीता से ही जहां-तहां के श्लोक लेकर और गीता की विचार पद्धति में जहां-तहां थोड़ी खींचतान करके इस बात को प्रमाणित करना सरल है और जब गीता में शब्द के विशेष प्रयोग की ओर से हम आंखें फेर लेते हैं सब तो यह काम और भी आसान हो जाता है। परंतु इस मत का आग्रह तब नहीं ठहर सकता जब कोई पक्षपात-रहित देखता है कि ग्रंथ में अंत तक बार-बार यही कहा जा रहा है कि अकर्म की अपेक्षा कर्म ही श्रेष्ठ है और कर्म की श्रेष्ठता इस बात में है कि इसमें वास्तविक रूप से समत्व के द्वारा कामना का आंतरिक त्याग करके कर्म पुरुष को अर्पण करना होता है। फिर कुछ लोग कहते हैं कि गीता का संपूर्ण अभिप्राय भक्ति-तत्व का प्रतिपादन है। ये लोग गीता के अद्वैत तत्वों की, और इसमें सबके एक आत्मा बह्म में शांत भाव से निवास करने की स्थिति को ऊंचा स्थान दिया गया है उसकी, अवहेलना करते हैं। इसमें संदेह नहीं की गीता में भक्ति पर बड़ा जोर दिया गया है, बारंबार इस बात को दुहराया गया है कि भगवान् ही ईश्वर और पुरुष हैं, और फिर गीता ने पुरुषोत्तम सिद्धांत स्थापित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि भगवान् पुरुषोत्तम हैं, उत्तम पुरुष हैं, अर्थात् क्षर पुरुष के परे और अक्षर पुरुष से भी श्रेष्ठ हैं और वहीं हैं जिन्हें जगत् के संबंध से हम ईश्वर कहते हैं, गीता की से बातें बड़ी मार्के की हैं, मानो उसकी जान हैं। तथापि ये ईश्वर वह आत्मा हैं, जिनमें संपूर्ण ज्ञान की परिपूर्ति होती है, ये ही यज्ञ के प्रभु हैं, सब कर्म हमें इन्हीं के पास ले जाते हैं और ये ही प्रेममय स्वामी हैं जिसमें भक्त हृदय प्रवेश करता है। गीता इन तीनों में संतुलन रखती है। कहीं ज्ञान पर जोर देती है, कहीं कर्म पर कहीं और कहीं भक्ति पर, परंतु यह जोर तात्कालिक विचार-प्रसंग से संबंध रखता है, इस मतलब से नहीं कि इनमें से कोई किसी से सर्वथा श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। जिन भगवान् में ये तीनों मिलकर एक हो जाते हैं वे ही परम पुरुष हैं, पुरुषोत्तम हैं। परंतु आज तक, अर्थात् जब से आधुनिकों ने गीता को मानना और उस पर कुछ विचार करना आरंभ किया है, तब से लोगों का झुकाव गीता के ज्ञानत्व और भक्ति तत्व को गौण मानकर, उसके कर्म-विषयक लगातार आग्रह का लाभ उठाकर उसे एक कर्मयोग-शास्त्र, कर्म-मार्ग में ले जाने वाला प्रकाश, कर्म विषयक सिद्धांत ही मानने की ओर दिखायी देता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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