गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 280

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर

इस प्रकार ऐहिक जीवन प्रयाण करके जीव जिस स्थिति में पहुंचता है वह विश्वातीत स्थिति है। इस सृष्ट लोकपरंपरा के अंदर जो उत्तमोत्तम स्वर्गलोक हैं उन सब को पाकर भी जीव पुनर्जन्म का भागी होता है ; पर जो जीव पुरूषोत्तम को प्राप्त होता है वह पुनर्जन्म लेने के लिये बाध्य नहीं होता । अतः अनिद्देश्य ब्रह्म को प्राप्त करने की ज्ञानाभीप्सा से जो कुछ फल प्राप्त हो सकता है वह इन स्वतःसिद्ध परम पुरूष परमेश्वर को , जो सब कर्मो के अधीश्वर तथा सब मनुष्यों और प्राणियों के सुहृद हैं , ज्ञान , कर्म और भक्ति के द्वारा प्राप्त होने की अभीप्सा के इस दूसरे और व्यापक मार्ग से भी प्राप्त होता है। उन भगवान् को इस प्रकार जानना और इस प्रकार उनका अनुसंधान करना जन्म - बंधन का कारण नहीं होता ; जीव इस मत्र्य जीवन की क्षणभंगुर और क्लेशदायिनी स्थिति से सदा के लिये मुक्त होने की इच्छा को पूर्ण कर सकता है। और , गीता इस जन्मचक्र तथा इससे छूटने की बात को और भी सुनिश्चित रूप से सामने रखने के लिये यहां विश्व की सृष्टि और लय के संबंध में जो प्राचीन मान्यता है उसे स्वीकार कर लेती है ।
सृष्टि और लय के संबंध यह सिद्धांत विश्व - प्रपंचविषयक भारतीय तत्वज्ञान का एक सुनिश्चित भाग है , जिसके अनुसार यह मानी हुई बात है कि इस भव - चक्र में विश्व की सृष्टि और फिर लय , विश्व के व्यक्त होने और फिर अव्यक्त हो जाने के काल बारी - बारी से आया करते हैं। विश्व के व्यक्त होकर रहने का काल सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का एक दिन और उसके अव्यक्त होकर रहने का काल एक रात कहाता है , ये दिन और रात क्रमशः होते रहते हैं। सहस्त्र युग का यह एक दिन ब्रह्मा का कर्मकाल है और विश्रांतिमय सहस्त्र युग की ही एक रात वह समय है जब ब्रह्मा सोते हैं। दिन के निकलने पर सब भूत व्यक्त होते और रात होने पर फिर अव्यक्त में मिल जाते हैं। इस प्रकार ये सब भूत विकल्प -क्रम से सृष्टि और लय के चक्र के साथ अवश होकर घूमा करते हैं ; बार - बार उत्पन्न होते , और बार - बार अव्यक्त में जा मिलते हैं। पर यह अव्यक्त भाव भगवान् का आदि दिव्य भाव नहीं है ; वह एक दूसरी ही स्थिति है, इस विश्वगत अव्यक्त के परे एक विश्वातीत अव्यक्त है जो सदा अपने - आपमें स्थित है , वह व्यक्त होने वाले इस विश्वपद के विपरीत नहीं है , बल्कि इसके बहुत ऊपर और इससे भिन्न है , अव्यय है, सनातन है जो इन भूतों के नाश होने के साथ नष्ट होने के साथ नष्ट नहीं होता। ‘‘ उसे अव्यक्त अक्षर कहते हैं , उसीको परम पुरूष और परमागति कहते हैं , उसे जो लोग प्राप्त होते हैं वे लौटकर नहीं आते , वही मेरा परम धाम ’ है।”[१] उसे जो कोई प्राप्त करता है वह इस व्यक्त और अव्यक्त भव - चक्र से निकल आता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 8.21

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