गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 283
यदि हम अपनी चेतना में सबके साथ एक आत्मा बन चुके हैं - वह एक आत्मा जो सदा हमारी बुद्धि में स्वयं भगवान् हैं , और हमारे नेत्र तथा अन्य इन्द्रियां इन्हीं भगवान् को सर्वत्र इस प्रकार देखती और अनुभव करती हैं कि किसी भी समय किसी भी पदार्थ को हम वैसा नहीं अनुभव करते या समझते जैसा कि असंस्कृत बुद्धि और इन्द्रियां अनुभव करती हैं , बल्कि उसे उस रूप में छिपे हुए तथा हमारी इच्छा भगवदिच्छा के साथ चेतना में एक हो चुकी और हमें अपनी इच्छा , अपनी मन - बुद्धि और शरीर का प्रत्येक कर्म उसी भगवदिच्छा से निःसृत , उसीका एक प्रवाह , उसीसे भरा हुआ या उसके साथ एकीभूत प्रतीत होता है। तो गीता का जो कुछ कहना है वह पूर्ण रूप से किया जा सकता है। अब भगवत्स्मरण मन की रूक - रूककर होनेवाली कोई विशेष क्रिया नहीं बल्कि अपने जीवन की सहज अवस्था और अपनी चेतना का सारतत्व बनकर होता रहे गा। अब जीव पुरूषोत्तम के साथ अपना यथार्थ , स्वाभाविक एवं अध्यात्मिक संबंध प्राप्त कर चुका है और हमारा संपूर्ण जीवन एक योग बन गया है , वह योग जो सिद्ध होने पर भी अनंत काल तक और समृद्धतर रूप से साधित - सवंर्धित होता रहेगा।
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