गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 312

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म , भक्ति और ज्ञान

यह ज्ञान अनायास ही एक भजन - पूजन , एक विशल भाव - भक्ति , एक महान् आत्मदान , एक पूर्ण आत्मोत्सर्ग हो जाता है ; कारण यह उस आत्मा का ज्ञान है , उस आत्म - स्वरूप का संस्पर्श है , उस परम ओर विश्वरूपविराट् पुरूष का आलिंगन है जो हमें , हम जो कुछ भी हैं , अपना बना लेता है और जब हम उसके समीप पहुंचते हैं तो हमारे ऊपर अपने सत्स्वरूप के अनंत की निधियां बरसाता है । कर्म का मार्ग भी आत्मनिवेदनरूपी उपसना और भक्ति में परिणत हो जाता है ; क्योंकि यह हमारे चित्त और उसकी सारी वृत्तियों और व्यापारों का उस एक श्रीपुरूषोत्तम के चरणों में पूर्ण समर्पण होता है । बाह्म वैदिक यज्ञविधि एक शक्तिशाली रूपक है , उससे जो लाभ होता है वह अल्प है पर है स्वर्गमुखी ; वास्तविक यज्ञ तो वह आंतरिक होम है जिसमें समग्र भगवान् स्वयं ही यज्ञ - क्रिया , यज्ञ और यज्ञ की प्रत्येक वस्तु और घटना बनते हैं । इस आतंर यज्ञविधि की सारी क्रियाएं और सामग्रियां हमारे अंदर रहने वाली उन्हींकी शक्ति की अपनी विधि और अपनी ही अभिव्यक्ति होती है । यह शक्ति हमारी अभीप्सा से अपनी प्रवृत्तियों के मूल की ओर ऊपर चढ़ती जाती है । अंतःस्थ भगवान ही यज्ञ की अग्नि और हवि बनते हैं , कारण यह अग्नि वही भगवन्मुखी इच्छा है और यह इच्छा ही हमारे अंदर भगवान की अपनी सत्ता है ।
और , हवि भी हमारी प्रकृति तथा पुरूष दोनों ही भावों के स्वान्तःस्थ भगवान् का ही रूप और शक्ति है ; जो कुछ उनसे प्राप्त हुआ है वह उन्हींके सत्तत्व , उन्हींके परम सत्य और मूल स्वरूप की सेवा और पूजा में भेंट चढ़ाया जाता है। भगवत्स्वरूप मनीषी स्वयं ही पावन मंत्र बनता है ; यह उन्हींकी सत्ता की ज्योति है जो भगवन्मुखी विचार के रूप में व्यक्त होती है और उस विचार के निगूढ़ आशय को मंडित किये रहने वाले तेज के स्वानुभूत ज्ञान का उदय करनेवाले मंत्र में तथा उसके उस छंद में जो सनातन पुरूष के छंदों की झनकार मुनष्य को सुनाता है , यह ज्योति ही काम करती है।ज्योतिर्मय भगवान् स्वयं ही वेद हैं और वेदों के प्रतिपाद्य भी । वे ही ज्ञान हैं और श्रेय भी । ऋक , यजुः , साम अर्थात् वे ज्योतिर्मय मंत्र जो बुद्धि को ज्ञान की किरणों से प्रकाशमय करते हैं , वे शक्तिमय मंत्र जो कर्म का सही विधन करते हैं , वे शांतिमय और सामंजस्यमय मंत्र जो आत्मा की भगवदीय इच्छा का उद्गान करते हैं , स्वयं ही ब्रह्म हैं , अधीश्वर हैं । भागवत चेतना का मंत्र ज्ञानोदय करानेवाला अपना प्रकाश ले आता है , भागवत शक्ति का मंत्र कार्यसिद्धि करानेवाला संकल्प और भागवत आनंद का मंत्र आत्मसत्ता के आत्मानंद की समत्व - सिद्धि पूर्णता ले आता है। सब मंत्र - शब्द और अर्थ - महामंत्र अक्षर ब्रह्म ऊँ का ही पुष्पित रूप हैं । जो ऊँ इन्द्रियग्राह्म विषयों के रूपों में व्यक्त है , जो जगदुत्पादक आत्म - गर्भाधान की उस चिन्मयी लीला के रूप में व्यक्त है जिसके रूप और विषय प्रतीक हैं ,[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.15

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