चंदेलवंश
चंदेलवंश
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 131 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | लल्लन जी गोपाल |
चंदेलवंश मध्यकालीन भारत का प्रसिद्ध राजवंश। जिसने 10वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। इस वंश की उत्पत्ति का उल्लेख कई लेखों में है। प्रारंभिक लेखों में इसे 'चंद्रात्रेय' वंश कहा गया है पर यशोवर्मन् के पौत्र देवलब्धि के दुदही लेख में इस वंश को 'चंद्रल्लावय' कहा है। कीर्तिवर्मन् के देवगढ़ शिलालेख में और चाहमान पृथ्वीराज तृतीय के लेख में 'चंदेल' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी उत्पत्ति भी चंद्रमा से मानी जाती है इसीलिये 'चंद्रात्रेयनरेंद्राणां वंश' के आदिनिर्माता चंद्र की स्तुति पहले लेखों में की गई है। धंग के विक्रम सं. 1011 के खजुराहोवाले लेखों में जो वंशावली दी गई है, उसके अनुसार विश्वश्रृक पुराणपुरुष, जगन्निर्माता, ऋषि मरीचि, अत्रि, मुनि चंद्रात्रेय भूमिजाम के वंश में नृप नंनुक हुआ जिसके पुत्र वा पति और पौत्र जयशक्ति तथा विजयशक्ति थे। विजय के बाद क्रमश: राहिल, हर्ष, यशोवर्मन् और धंग राजा हुए। वास्तव में नंनुक से ही इस वंश का आरंभ होता है और अभिलेख तथा किंवदंतियों से प्राप्त विवरणों के आधार पर उनका संबंध आरंभ से ही खजुराहो से रहा। अरब इतिहास के लेखक कामिल ने भी इनको 'कजुराह' में रखा है। धंग से इस वंश के संस्थापक नंनुक की तिथि निकालने के लिय यदि हम प्रत्येक पीढ़ी के लिये 20-25 वर्ष का काल रखें तो धंग से छह पीढ़ी पहले नंनुक की तिथि से लगभग 120 वर्ष पूर्व अर्थात् वि.सं. 1011= 954 ई. - 120= 834 ई. (लगभग 830 ई.) के निकट रखी जा सकती है। 'महोबा खंड' में चंद्रवर्मा के अभिषेक की तिथि 225 सं. रखी गई है। यदि 'चंद्रवर्मा' का नंनुक का विरुद अथवा दूसरा नाम मान लिया जाय और इस तिथि को हर्ष संवत् में मानें तो नंनुक की तिथि 606+ 225 अथवा 831 ई. आती है। अत: दोनों अनुमानों से नंनुक का समय 831 ई. माना जा सकता है।
इस चंदेल के विषय में और कोई जानकारी प्राप्त नहीं है क्योंकि अन्य चंदेल अभिलेखों में इसका नाम भी नहीं मिलता। वाक्पति ने विंध्या के कुछ शत्रुओं को हराकर अपना राज्य विस्तृत किया। तृतीय नृप जयशक्ति ने अपने ही नाम से अपने राज्य का नामकरण जेजाकभुक्ति किया। कदाचित् यह प्रतिहार सम्राट् भोज का सामंत राजा था और यही स्थिति उसके भाई विजयशक्ति तथा पुत्र राहिल की भी थी। हर्ष और उसके पुत्र यशोवर्मन् के समय परिस्थिति बदल गई। गुर्जरों और राष्ट्रकूटों के बीच निरंतर युद्ध से अन्य शक्तियाँ भी ऊपर उठने लगीं। इसके अतिरिक्त महेंद्रपाल के बाद कन्नौज के सिंहासन के लिये भोज द्वितीय तथा क्षितिपाल में संघर्ष हुआ। खजुराहो के एक लेख में हर्ष अथवा उसके पुत्र यशोवर्मन् द्वारा पुन: क्षितिपाल को सिंहासन पर बैठाने का उल्लेख है- पुनर्येन श्री क्षितिपालदेव नृपसिंह: सिंहासने स्थापित:।
चंदेल राजा कदाचित् स्वतंत्र बन चुके थे और वे प्रतिहार सम्राटों के अधीन न थे अथवा केवल नाममात्र के लिये थे। धंग के नन्योरा के लेख (वि.सं. 1055-978) में हर्ष के अधीनस्थ राजाओं का उल्लेख है। चाहमान तथा कलचुरि वंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर, चंदेल राजा उत्तरी भारत की राजनीतिक परिस्थिति में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास करने लगे। हर्ष के पुत्र यशोवर्मन् के समय चंदेलों का गौड़, कोशल, मिथिला, मालव, चेदि, तथा गुर्जर राजाओं के साथ संघर्ष का संकेत है। उसने कालिंजर भी जीता। प्रशस्तिकार ने उसकी प्रशंसा बढ़ा चढ़ाकर की हो तब भी इसमें संदेह नहीं कि चंदेल राज्य धीरे धीरे शक्तिशाली बन रहा था। नाम मात्र के लिये इस वंश के राजा गुर्जर प्रतिहार राजाओं का आधिपत्य माने हुए थे। धंग के खजुराहों लेख में अंतिम बार गुर्जर सम्राट् विनायकपालदेव का उल्लेख हुआ है। धंगदेव वैधानिक रूप से और वस्तुत: स्वतंत्र हो गया था। यशोवर्मन् के समय खजुराहों के विष्णुमंदिर में बैकुंठ की मूर्तिस्थापना का लेख है जिसे कैलास से भोटनाथ से प्राप्त की थी। मित्र रूप में वह केर राजा शाहि के पास आई और उसमें हयपति देवपाल के पुत्र हेरंबपाल ने लड़कर प्राप्त की। देवपाल से यह मूर्ति यशोवर्मन् को मिली। कुछ विद्वान् इससे चंदेलों की प्रतिहार राजा पर विजय का संकेत मानते हैं, पर यथार्थ तो यह है कि 'हयपति' उपाधि का गुर्जर प्रतिहार सम्राट् से संबंध ही न था। कदाचित् वह कोई स्थानीय राजा रहा होगा।
चंदेलों में धंगदेव सबसे प्रसिद्ध तथा शक्तिशाली राजा हुआ और इसने 50 वर्ष (950 से 1000 ई.) तक राज किया। उसके लंबे राज्यकाल में खजुराहो के दो प्रसिद्ध मंदिर विश्वनाथ तथा पार्श्वनाथ बने। पंजाब के राजा जयपाल की सहायता के लिये अजमेर ओर कन्नौज के राजाओं के साथ उसने गजनी के सम्राट् सुबुक्तगीन के विरुद्ध सेना भेजी। उसके पत्र गंड (1001-1017) ने भी अपने पिता की भाँति पंजाब के राजा आनंदपाल की महमूद गजनी के विरुद्ध सहायता की। महमूद के कन्नौज पर आक्रमण और राज्यपाल के आत्मसमर्पण के विरोध में गंड के पुद्ध विद्याधर ने कन्नौज के राजा का वध कर डाला, पर 1023 ई. में गंड को स्वयं कालिंजर का गढ़ महमूद को दे देना पड़ा। महमूद के लौटने पर यह पुन: चंदेलों के पास आ गया। गंड के समय कदाचित् जगदंबी नामक वैष्णव मंदिर तथा चित्रगुप्त नामक सूर्यमंदिर बने। गंड के पुत्र विद्याधर (लगभग 1019-1029) को इब्नुल अथीर नामक मुसलमान लेखक ने अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है। उसके समय चंदेलों ने कलचुरी और परमारों पर विजय पाई और 1019 तथा 1022 में महमूद का मुकाबला किया। चंदेल राज्य की सीमा विस्तृत हो गई थी। कहा जाता है कि कंदरीय महादेव का विशाल मंदिर भी इसी ने बनवाया (दे. खजुराहो)।
विद्याधर के बाद चंदेल राज्य की कीर्ति और शक्ति घटने लगी। विजयपाल (लगभग 1029-51) इस युग का प्रमुख चंदेल नृप हुआ। कीर्तिवर्मन् (1070-95) तथा मदनवर्मन् (लगभग 1029-1162) भी प्रमुख चंदेल नृप हुए। कलचुरी सम्राट् दाहिले की विजय से 1040-70 तक के लंबे काल के लिये चंदेलों की शक्ति क्षीण हो गई थी। विल्हण के कर्ण को कालिंजर का राजा बताया है। कीर्तिवर्मन् ने चंदेलों की खोई हुई शक्ति, और कलचुरियों द्वारा राज्य के जीते हुए भाग को पुन: लौटाकर अपने वंश की लुप्त प्रतिष्ठा स्थापित की। उसने सोने के सिक्के भी चलाए जिसमें कलचुरि आंगदेव के सिक्कों का अनुकरण किया गया है। केदार मिश्र द्वारा रचित 'प्रबोधचंद्रोदय' (1065 ई.) इसी चंदेल सम्राट् के दरबार में खेला गया था। इसमें वेदांतदर्शन के तत्वों का प्रदर्शन है। यह कला का भी प्रेमी था और खजुराहों के कुछ मंदिर इसके शासनकाल में बने। कीर्तिवर्मन् के बाद सल्लक्षण बर्मन् या हल्लक्षण वर्मन्, जयवर्मनदेव तथा पृथ्वीवर्मनदेव ने राज्य किया। अंतिम सम्राट्, जिसका वृत्तांत 'चंदरासो' में उल्लिखित है, परमर्दिदेव अथवा परमाल (1165-1203) था। इसका चौहान सम्राट् पृथ्वीराज से संघर्ष हुआ और 1208 में कुतबुद्दीन ने कालिंजर का गढ़ इससे जीत लिया, जिसका उल्लेख मुसलमान इतिहासकारों ने किया है। चंदेल राज्य की सत्ता समाप्त हो गई पर शसक के रूप में इस वंश का अस्तित्व कायम रहा। 16वीं शताब्दी में स्थानीय शासक के रूप में चंदेल राजा बुंदेलखंड में राज करते रहे पर उनका कोई राजनीतिक प्रभुत्व न रहा।[१][२]
शासन, संस्कृति एवं कला : चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। यशोवर्मन् के समय तक चंदेल नरेश अपने लिये किसी विशेष उपाधि का प्रयोग नहीं करते थे। धंग ने सर्वप्रथम परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममाहेश्वर कालंजराधिपति का विरुद धारण किया। कलचुरि नरेशों के अनुकरण पर परममाहेश्वर श्रीमद्वामदेवपादानुध्यात तथा त्रिकलिंगाधिपति और गाहड़वालों के अनुकरण पर परमभट्टारक इत्यादि समस्त राजावली विराजमान विविधविद्याविचारवाचस्पति और कान्यकुब्जाधिपति का प्रयोग मिलता है।
हम्मीरवर्मन् की साहि उपाधि संभवत: मुस्लिम प्रभाव के कारण थी; राजवंश के अन्य व्यक्तियों को भी शासन में अधिकार के पद मिलते थे। कुछ अभिलेखों से प्रतीत होता है कि कुछ मंत्रियों को उनके पद का अधिकार वंशगत रूप में प्राप्त हुआ था। मंत्रियों के लिये मंत्रि, सचिव और अमात्य का प्रयोग बिना किसी विशेष अंतर के किया गया है। मंत्रिमुख्य के अतिरिकत अधिकारियों में सांधिविग्रहिक, प्रतिहार, कंचुकि, कोशाधिकाराधिपति, भांडागाराधिपति, अक्षपटलिक, कोट्टपाल, विशिष, सेनापति, हस्त्यश्वनेता, पुरबलाध्यक्ष आदि के नाम आते हैं। शासन के कुछ कार्य पंचकुल और धर्माधिकरण जैसे बोर्डो के हाथ में था। राज्य विषय, मंडल, पत्तला, ग्रामसमूह और ग्रामों में विभक्त था। शासन में सामंत व्यवस्था कुछ रूपों में उपस्थित थी। एक अभिलेख में एक मंत्री को मांडलिक भी कहा गया है। विशिष्ट सैनिक सेवा के लिये गाँव दिए जाते थे। युद्ध में मरे सैनिकों के लिये किसी प्रकार के पेंशन अथवा मृत्युक वृत्ति की भी व्यवस्था थी। चंदेल राज्य की भौगोलिक और प्राकृतिक दशा के कारण दुर्गों का विशेष महत्व था और उनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। अभिलेखों में राज्य द्वारा लिए गए करों की सूची में भाग, भोग, कर, हिरण्य, पशु, शुल्क और दंडादाय का उल्लेख है।
ब्राह्मणों में द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, श्रोत्रिय, अग्निहोत्री, पंडित, दीक्षित और भट्ट के सथ ही राउत और ठक्कुर का भी उपयोग मिलता है। ब्राह्मणों ने अपने को परंपरागत आदर्शों और जीविकाओं तक ही सीमित नहीं रखा था। क्षत्रियों में जाति के स्थान पर कुल का गौरव बढ़ रहा था। 11वीं शताब्दी तक कायस्थों के उल्लेख आते हैं। चंदले राज्य में इनकी संख्या अधिक थी। वैश्य और शूद्र अपने वर्ण के स्थान पर अपने व्यवसाय का ही उल्लेख करते हैं। सजातीय विवाह का ही प्रचलन था। बहुविवाह की भी प्रथा थी।
अभिलेखों में रूपकार, रीत्तिकार, पित्तलकार, सूत्रधार, वैद्य, अश्ववैद्य, नापित और धीवर के उल्लेख मिलते हैं। उद्योगों में कुशलता के स्तर के अनुसार शिल्पिन्, विज्ञाविन् और वैदाग्धि की उपाधियाँ होती थीं। कृषि की सुविधा के लिये सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। व्यापार प्रधानत: जैनियों के हाथ में था। श्रेष्ठि का राज्य में भी गौरव था। कीर्तिवर्मन् पहला चंदेल नरेश् था जिसने सिक्के बनवाए।
चंदेल राज्य में पौराणिक धर्म की जनप्रियता बढ़ रही थी। चंदेल राजा और उनके मंत्री तथा अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रतिमा और मंदिर के निर्माण के कई उल्लेख मिलते हैं। विष्णु के अवतारों में वराह, वामन, नृसिंह, राम और कृष्ण की पूजा का अधिक प्रचलन था। चंदेल राज्य से हनुमान की दो विशाल प्रतिमाएँ मिली हैं और कुछ चंदेल सिक्कों पर उनकी आकृति भी अंकित हैं किंतु विष्णु की तुलना में शिव की पूजा का अधिक प्रचार था। धंग के समय से चंदेल नरेश शैव बन गए। शिवलिंग के साथ ही शिव की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। शिव के विभिन्न स्वरूपों के परिचायक उनके अनेक नाम अभिलेखों में आए हैं। शक्ति अथवा देवी के लिये भी अनेक नामों का उपयोग हुआ है। अजयगढ़ में अष्टशक्तियों की मूर्तियाँ अंकित हैं। सूर्य की पूजा भी जनप्रिय थी। गणेश और ब्रह्मा की मूर्तियाँ यद्यपिं मिली हैं लेकिन उनके पूजकों के पथक् संप्रदायों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। अन्य देवता जिनके उल्लेख हैं या जिनकी प्रतिमाएँ मिलती हैं। उनके नाम हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, इंद्र, चंद्र और गंगा। बुद्ध, बोधिसत्व और तारा की कुछ प्रतिमाएँ मिलती हैं। ब्राह्मण धर्म की भाँति जैन धर्म का भी प्रचार था, विशेष रूप से वैश्यों में। किंतु सांप्रदायिक कटुता के उदाहरण नहीं मिलते। चंदेल नरेशों की नीति इस विषय में उदार थी।
चंदेल राज्य अपनी कलाकृतियों के कारण भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। चंदेल मंदिरों में से अधिकांश खजुराहों में हैं। कुछ महोबा में भी हैं। इनका निर्माण मुख्यत: 10वीं शताब्दी के मध्य से 11वीं शताब्दी के मध्य के बीच हुआ है। ये शैव, वैष्णव और जैन तीनों ही धर्मों के हैं। इन मंदिरों में अन्य क्षेत्रों की प्रवत्तियों का प्रभाव भी ढूँढ़ा जा सकता है किंतु प्रधान रूप से इनमें चंदेल कलाकार की मौलिक विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं। एक विद्वान् का कथन है कि भवन-निर्माण-कला के क्षेत्र में भारतीय कौशल को खजुराहों के मंदिरों में सर्वोच्च विकास प्राप्त हुआ है। ये मंदिर विशालता के कारण नहीं बल्कि अपनी भव्य योजना और समानुपातिक निर्माण के लिये प्रसिद्ध हैं। मंदिर के चारों ओर कोई प्राचीर नहीं होती। मंदिर ऊँचे चबूतरे (अधिष्ठान) पर बना होता है। इसमें गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप, अंतराल और महामंडल होते हैं। इक मंदिरों की विशेषता इनके शिखर हैं जिनके चारों ओर अंग शिखरों की पुनरावृत्ति रहती है।
इन मंदिरों की मूर्तिकला भी इनकी विशेषता है। इन मूर्तियों की केवल संख्या ही स्वंय उल्लेखनीय है। इनके निर्माण में सूक्ष्म कौशल के साथ ही अद्भुत सजीवता दिखलाई पड़ती है। इन कृतियों के विषय भी विविध हैं : प्रधान देवी देवता, परिवारदेवता, गौण देवता, दिक्पाल, नवग्रह, सुरसुंदर, नायिका, मिथुन, पशु और पुष्पलताएँ तथा रेखागणितीय आकृतियाँ। इन मंदिरों में मिथुन आकृतियों की इतनी अधिक संख्या में उपस्थिति का कोई सर्वमान्य हल नहीं बतलाया जा सकता। महोबा से प्राप्त चार बौद्ध प्रतिमाएँ अतीव सुंदर हैं। इनमें से सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति तो भारतीय मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट नमूनों में से एक है।
साहित्य के क्षेत्र में कोई विशेष उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। कुछ चंदेल अभिलेखकाव्य की दृष्टि से अच्छे हैं। चंदेलों के कुछ मंत्रियों और अधिकारियों को लेखों में कवि, बालकवि, कवींद्र, कविचक्रवर्तिन् आदि कहा गया है जिससे चंदेल राजाओं की कवियों को प्रश्रय देने की नीति का बोध होता है। श्रीकृष्ण मिश्र रचित प्रबोधचंद्रोदय नाटक चंदेल राजा कीर्तिवर्मन् के समय की रचना है, दे. ('प्रबोध चंद्रोदय')।[३]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.- बी.ए. स्मिथ : अलीं हिस्ट्री ऑव इंडिया; सी.वी.वैद्य : हिस्ट्री ऑव मेडिवल हिंदू इंडिया; एन.एस. बोस: हिस्ट्री ऑव दि चंदेलाज; डाइनैस्टिक हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग 2; केशवचंद्र मिश्र : चंदेल और उनका राजत्वकाल; हेमचंद्र रे : मजुमदार तथा पुसालकर : दि स्ट्रगिल फॉर दि एंपायर; एस.के.मित्र : दि अर्ली रूलर्ज ऑव खजुराहो; कृष्णदेव : दि टेंपुल ऑव खजुराहो; ऐंशेंट इंडिया, भाग 15।
- ↑ बैजनाथ पुरी
- ↑ सं.ग्रं.- नेमाई साधन बोस : हिस्ट्री ऑव दि चंदेलाज; शिशिरकुमार मित्र : अलीं रूलर्ज ऑव खजुराहो।