चंद्र

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लेख सूचना
चंद्र
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 134
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक अवध किशोर नारायण. तथा जय प्रकाश

चंद्र (ल. ३७५-४१४-१५ ई.) सम्राट् चंद्र का ज्ञान मेहरौली में कुतुबमीनार के समीप स्थित लौहस्तंभ के लेख् से होता है। इस स्तंभ में सम्राट् चंद्र की यशोगाथा उत्कीर्ण है। इससे लगता है कि उन्होंने वंग प्रदेश में एकत्र (संगठित होकर आए हुए) शत्रुआं को पराजित किया। सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीक (सिंधु के तीर पर स्थित एक स्थान या बैक्ट्रिया) जीता। उनके वीर्यानिल से दक्षिण जलनिधि सुवासित हो रहा था। उन्होंने विस्तृत पृथ्वी पर स्वबाहुबल से एकाधिराज्य स्थापित किया। अभिलेख लिखे जाने के समय वे स्वयं जीवित नहीं थे। इनके अतिरिक्त लेख के अनुसार वे वैष्णव थे। किंतु इस लेख में सम्राट् चंद्र के वंश के अनुल्लेख के कारण उनकी पहचान निश्चयपूर्वक कर सकना संभव नहीं है।

विभिन्न विद्वानों ने इस सम्राट् चंद्र की पहचान प्राचीन भारत के विभिन्न सम्राटों से करने की चेष्टा की है- चंद्रगुप्त मौर्य, कनिष्क प्रथम, पुष्करण के चंद्रवर्मन्‌, चंद्रगुप्त प्रथम, नाग राजाओं-सदाचंद्र या चंद्रांश तथा चंद्रगुप्त द्वितीय के साथ।

उपरिलिखित राजाआं में चंद्रगुप्त मौर्य के साथ चंद्र की समता स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि लौहस्तंभ-लेख की लिपि मौर्ययुगीन ब्राह्मी से बहुत बाद की है। कनिष्क प्रथम ने अपने साम्राज्यवादी जीवन का आरंभ ही बैक्ट्रिया और (पाकिस्तान के) उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत से किया, जबकि चंद्र की विजयों का आरंभ बंगाल एवं उसकी परिणति पंजाब और बलख में हुई। चंद्रवर्मन्‌ एवं नागराजा सदाचंद्र और चंद्रांश छोटे छोटे स्थानीय शासक थे जिनके लिये इतनी विस्तृत और साहसिक विजययात्राएँ संभव न हुई होंगी। चंद्रगुप्त प्रथम स्वयं बलख में युद्ध करने की स्थिति में नहीं थे। इसके अतिरिक्त दक्षिण पर उनका प्रभाव भी नहीं था।

मेहरौली लेख की अधिकांश बातें चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य में उपलब्ध हैं। इसी से अधिकांश विद्वान्‌ चंद्र की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। गुप्त अभिलेखों से स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को अपने पिता समुद्रगुप्त से एक विस्तृत साम्राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। किंतु, यदि यह माना जाय कि यह लेख चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के उपरांत लिखा गया, तो यह स्वीकार किया जा सकेगा कि लेख खुदवानेवाले व्यक्ति ने अतिरिकत श्रद्धावश चंद्र को साम्राज्य का संस्थापक कहा होगा। अन्यथा 'प्राप्तेन स्वभुजार्जित' रुद्रदामन्‌ प्रथम के जूनागढ़ अभिलेख में आए 'स्वयमधिगतमहाक्षत्रपनाम्ना' की भाँति मात्र स्व-प्रभुताज्ञापनार्थ प्रयुक्त वाक्यावली भर ही सिद्ध होगी।



टीका टिप्पणी और संदर्भ