चांडाल
चांडाल
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 181 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | विश्वंभररण पाठक |
चांडाल एक निम्नस्तरीय अदिम जाति को भारतीय समाज में प्रविष्ट होने पर 'बाह्य' होने के कारण अंत्यज एवं अस्पृश्य मानी गई। मातंग, दिवाकीर्ति, प्लेव और जनंगम इसके पर्याय हैं। उत्तरवैदिक काल में[१] 'पुरुषमेध' के वर्णन में चांडालों का इतर वर्णों के साथ जो उल्लेख है उससे उनकी अस्पृश्यता द्योतित नहीं होती, यद्यपि वे शूकर के समान कुत्सितयोनि माने गए[२]। उनकी अपनी 'चांडाली' भाषा अथवा 'विभाषा' थी[३]। लाल दुपट्टा, कायबंधन और मैले रंग का उत्तरीय (पांसुकुल संघाटी) उनका विशेष पहनावा (मातंग जातक) था जिसे वे मृतकों के कफन से बनाते थे[४]। वे लोहे के अलंकार पहनते और हाथ में मृण्पात्र[५] रखते थे। सद्य: मृत मनुष्यों की अस्थियों पर बने हुए मंदिरों में वे यक्षों की पूजा करते थे[६]। धूलिघूसरित, कुत्तों और गधों से घिरे[७] हुए चांडालों का नगर-ग्राम से बाहर वास था। वे नगर में प्रवेश करने पर कुट्टिम पर बाँस पटककर अपन आने की सूचना देते थे। उनके मद्यपान तथा प्याज और लहसुन खाने की चर्चा फाहियन भी करता है। परंपरा है कि हर्ष के चांडालकुलोत्पन्न सभ्य मातंग दिवाकर ने अपने काव्यकौश्ल से बाणभट्ट और मयूर की समकक्षता प्राप्त की थी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ