चार्ल्स

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लेख सूचना
चार्ल्स
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 194
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक गिरजाांकर मिश्र

चार्ल्स इतिहास से हमें विभिन्न देशों के अनेक चार्ल्स नाम के शासकों का परिचय प्राप्त होता है। यहाँ हम उनमें से प्रमुख चार्ल्सों का ही उल्लेख करेंगे।

चार्ल्स आगस्टस (1757-1828) सैक्स बेगार का बड़ा ड्यूक; उसकी अल्पावस्था में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई अतएव शासन उसकी माता के हाथों में आया। उसकी माँ ने बड़ी ही कुशलता से 1775 ई. तक शासन संचालित किया। राज्याभिषेक होने पर उसका शासन उदारता के सिद्धांतों पर स्थापित हुआ। उसने जलकल्याण के अनेक सराहनीय कार्य किए। उसने गोथ संस्कृति का संरक्षण लिया तथा जेना के विश्वविद्यालय को वास्तविक रूप से ज्ञान का केंद्र बना दिया। इसी के शासन से प्रशा का सांस्कृतिक पुनरुत्थान प्रारंभ होता है। उसने क्रांतिकारी युद्धों में भी भाग लिया नैपोलियन के विरुद्ध कई मोर्चे लिये। 1812 ई. में जब वह अपने ही विनाशकारी युद्धों पर उतर आया तो उसके ज्वार को अवरुद्ध करने में चार्ल्स ने अपूर्व धैर्य और उत्साह का प्रदर्शन किया। नैपोलियन की पराजय के उपरांत वह वियना की कांग्रेस में एक विजेता राष्ट्र के प्रतिनिधि की भाँति सम्मानित हुआ और वियना कांग्रेस की वार्ता को संतुलन देने की पूरी चेष्टा की। इस अधिवेशन में ऐसे कई अवसर आए जहाँ उसे मैटरनिक की प्रतिक्रियापूर्ण नीतियों को युग की पुकार से एक साम्य देना पड़ा। उसने अपनी डची में एक उदार विधान लागू किया।[१]

चार्ल्स एडवर्ड चार्ल्स स्टुअर्ट (1720- 1788) जो यंग प्रिटेंडर के नाम विख्यात था। वह ओल्ड प्रिटेंडर (जेम्स तृतीय) का ज्येष्ठ पुत्र था। पौलैंड और आस्ट्रेलिया के उत्तराधिकार युद्धों में उसने प्रमुख भाग लिया था तथा डिटेंगहम के युद्धक्षेत्र में उसे विशेष ख्याति प्राप्त हुई थी। इंग्लैंड में स्टुअर्ट वंश को पुन: स्थापित करने की उसकी महत्वाकांक्षा थी और इस उद्देश्य से 1745 ई. में इंग्लैंड पर आक्रमण किया तथा स्कॉटलैंड में शासनसत्ता स्थापित कने में वह कुछ अंश तक सफल रहा। स्कॉटलैंड से उसकी चेष्टाएँ इंग्लैंड तक पहुंचने की निरंतर होती रहीं, किंतु उसके कुचक्रों की सूचना इंग्लैंड को समय से होती रही और अंत में सभी दिशाओं से खदेड़े जाने पर उसने भागकर फ्रांस में शरण ली। फ्रांस और इंग्लैंड का जो दीर्घ मनोमालिन्य था उस पृष्ठभूमि में उसे वांछनीय वातावरण प्राप्त हुआ। किंतु फ्रांस की राजनीति में उसका हस्तक्षेप समझा गया और वहाँ से भी वह निष्कासित किया गया। उसका अवशिष्ट जीवन महाद्वीप में शरण की तलाश में इधर उधर भटकते रहने में बीता। वह ऐसे प्रत्येक अवसर की प्रतीक्षा में रहता था जिसका लाभ उठाकर इंग्लैंड में स्टुअर्ट वंश को पुन:स्थापित कर सके। किंतु इंग्लैंड की जनता अब जनतांत्रिक प्रणाली को पूर्णत: अपना चुकी थी। उसे स्टुअर्ट उत्तराधिकार और कैथोलिक षड्यंत्रों से आशंका पैदा हो गई थी। अत: उसकी गणना और योजनाएँ सभी निराधार सिद्ध हुई और इंग्लिश इतिहास में वह 'झूठा दावेदार' विशेषण स संबोधित किया गया।[२]

चार्ल्स (बरगंडी) चार्ल्स द बोल्ड (1433 से 1477) बरगंडी का चतुर्थ और अंतिम ड्युक तथा फिलिप द गुड का पुत्र था। पिता की अस्वस्थता के कारण 1465 में बरगंडी की डची वास्तविक शासक हुआ और यहीं से इसकी राजनीतिक शिक्षा प्रारंभ हुई। अपने समकालीन शासक लुई एकादश के उद्देश्यों को विफल कर देने का इसने भरसक प्रयत्न किया तथा आगे चलकर उसकी पुत्री कैथरिन से विवाह भी किया। 1466 में उसने लीग के विद्रोह को दबाया और 1467 में वह इस डची का उत्तराधिकारी बना। लुई से उसका संघर्ष निरंतर चलता रहा तथा 1468 में उसने फ्रांस पर आक्रमण भी किया। उसकी हार्दिक आकांक्षा थी कि मध्य यूरोपीय साम्राज्य पुन: स्थापित हो। वह फ्रांस के राज्यमुकुट को भी हथियाना चाहता था। लुई से उसे बार बार परास्त होना पड़ा। अंतत: उसे भागना पड़ा और मार्ग में ही वह मार डाला गया। उसकी मृत्यु से बरगंडी के ड्युकों की पुरुष-उत्तराधिकार-शृंखला समाप्त हो गई। उसकी एकमात्र पुत्री मेरी ने फ्रांस के परे अपने पिता के प्रदेशों पर शासन किया।

चार्ल्स का समस्त जीवन माध्यमिक युद्धप्रथाओं में ही गुजरा। लुई की प्रतिद्वंद्विता में रहने के कारण उसकी प्रशासकीय क्षमता का परिचय यथेष्ट नही मिल सका। शासन की जड़ें मजबूत न होने के कारण उसकी मृत्यु के उपरांत ही अस्तव्यस्तता और अशांति फैलने लगी। उसकी क्षमता का उत्तराधिकारी न होने कारण उसकी व्यवस्था शीघ्र ही लुप्त होने लगी।[३]

चार्ल्स प्रथम (1600-49) ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड का राजा (1625-49) तथा जेम्स प्रथम का द्वितीय पुत्र। अपने बड़े भाई प्रिस हेनरी की मृत्यु (1616) के बाद राजा हुआ। इंग्लैंड के इतिहास में इसके शासन का बड़ा महत्व है। अपने पिता के समान चार्ल्स के भी राज्याधिकारों के संबंध में निर्बध विचार थे। दैवी अधिकार के सिद्धांत में उसका अटूट विश्वास था। यही कारण था कि अपने सारे शासनकाल में चार्ल्स का पार्लमेंट से मनमुटाव रहा तथा दोनों में झगड़ा होता रहा। फलत: यह समस्या उपस्थित हो गई कि इंग्लैंड में पार्लमेंट का शासन हो अथवा राजा का। चार्ल्स चाहता था कि बिना पार्लमेंट की अनुमति के वह लोगों को जेल भेज सके, कर लगा सके तथा जनसाधारण की इच्छा के विरुद्ध धार्मिक परिवर्तन कर सके। वह कामंस (लोक) सभा के अधिकारों तथा रियासतों पर कुछ भी ध्यान दिए बिना मनमाने रूप से देश का शासन करना चाहता था। पार्लमेंट ने इसका विरोध किया, और जब राजा ने हठ किया तो पार्लमेंट से झगड़ने के फलस्वरूप उसे अपने प्राण देने पड़े। चार्ल्स के मंत्री भी उसके विश्वासपात्र नहीं थे। उसका व्यवहार सदा कपटपूर्ण रहता था। वह बहुत ही मूढ़़, हठी तथा घंमडी था।

चूँकि इसकी पत्नी रोमन कैथोलिक थी इसलिये पहली ही पार्लमेंट में चार्ल्स ने कैथोलिक पत्नी के प्रति अपनी सहानुभूति दर्शाई। पार्लमेंट कैथोलिक मत के विरुद्ध थी इसीलिये वह चार्ल्स के विरुद्ध हो गई। इसके अतिरिक्त, चार्ल्स ने बकिंघम नामक एक निकम्मे व्यक्ति को अपना विश्वस्त प्रियपात्र बनाया। जब पार्लमेंट से धनराशि स्वीकृत कराने का प्रश्न उठा तब पार्लमेंट ने यह शर्त रखी कि बकिंघम को पदच्युत करने पर ही ऐसा हो सकेगी। इस पर क्रुद्ध होकर चार्ल्स ने पार्लमेंट भंग कर दी। अब पार्लमेंट को प्रसन्न करन के लिये उसने स्पेन से युद्ध करने की ठानी। बकिंघम के नेतृत्व में उसने एक सेना केडिज भेजी, पर यह सेना बुरी तरह हार गई। इस प्रकार इस योजना में धन भी व्यय हुआ और हाथ भी कुछ न लगा। विवश होकर चार्ल्स को दूसरी पार्लमेंट बुलानी पड़ी। इस बार कामंस सभा ने जन इलियट के नेतृत्व में बकिंघम पर कई अभियोग लगाए। अपने स्नेहपात्र को बचाने के लिये चार्ल्स ने पार्लमेंट पुन: भंग कर दी। इसी बीच उसका फ्रांस से झगड़ा हो गया और ला रोशेल- जिसे फ्रांस के राजा ने घेर रखा था- के प्रोटेस्टेंट निवासियों को मुक्त कराने के लिये चार्ल्स ने पुन: एक सेना बकिंघम के नेतृत्व में भेजी, जो असफल रही। इसका व्यय पूरा करने के लिये चार्ल्स ने लोगों से बलात्‌ ऋण लिया, पर यह धन पर्याप्त न था। विवश होकर चार्ल्स को पुन: पार्लमेंट बुलानी पड़ी। इस बार कामंस सभा ने एक अधिकारपत्र तैयार किया जिसमें चार्ल्स के मनमाने कृत्यों की आलोचना की गई, और यह कहा गया कि उनकी शिकायतों के दूर होने तक कोई अन्य अनुदान नहीं दिया जायगा। पर इस अधिकारपत्र के बावजूद चार्ल्स मनमानी करता रहा। उसने पुन: पार्लमेंट को भंग कर दिया और अब बिना पार्लमेंट के शासन करने का निश्चय किया।

इस प्रकार अपने शासन के पहले चार वर्षों में चार्ल्स ने तीन बार पार्लमेंट बुलाई और तीनों बार उससे झगड़ा कर उसे भंग कर दिया। तृतीय पार्लमेंट भंग करने के बाद सन्‌ 1629 से ग्यारह वर्ष तक चार्ल्स ने वैयक्तिक शासन किया। इस बीच वह लॉड तथा स्ट्रैफर्ड की राय से काम करता था। उसने अपने विरोधी नेताओं को बेरोक टोक जेल भेजना प्रारंभ कर दिया, लोगों की इच्छा के विरुद्ध उन पर अपने धार्मिक विचार मढ़ने लगा तथा अवैध करों के द्वारा धन एकत्र करने लगा। 'स्टार चेंबर' तथा 'हाई कमीशन' के कोर्ट चार्ल्स की नीति के सहायक थे। चार्ल्स की धार्मिक नीति के कारण धर्म की समस्या को लेकर स्कॉटलैंड में विद्रोह उठा खड़ा हुआ। इसे दबने के लिये चार्ल्स ने एक सेना भेजी। वह हार गई और अंत में चार्ल्स का ही अपमान हुआ। इसका बदला लेने के लिये चार्ल्स ने एक नई सेना संगठित करनी चाही। इसके लिये धन की आवश्यकता पड़ी। चार्ल्स ने एक पार्लमेंट बुलाई जो इतिहास में लघु पार्लमेंट के नाम से प्रसिद्ध है। इस बार भी कामंस सभा ने जब शिकायतें दूर हेने पर ही अनुदान देने की बात चलाई तो चार्ल्स से पुन: पार्लमेंट भंग कर दी। थोड़ा बहुत धन जोड़कर उसने स्काटलैंड़ के विरुद्ध एक सेना भेजी पर फल कुछ न हुआ। धन की कमी के कारण चार्ल्स को पुन: पार्लमेंट बुलानी पड़ी जो दीर्घ पार्लमेंट के नाम से विख्यात है।

दीर्घ पार्लमेंट की बैठक होते ही स्टैफर्ड तथा लॉड को प्राण दंड दिया गया। इसके बाद पार्लमेंट ने संविधान का पुनरुद्धार किया। धर्म के विषय को लेकर कामंस सभा के नेताओं में मतभेद हो गया। इसपर चार्ल्स ने अपने अधिकारों की धाक जमानी चाही। फलस्वरूप सन्‌ 1642 में गृहयुद्ध प्रारंभ में विजय दृष्टिगोचर होते हुए भी नेस्बी तथा मार्स्टनमूर के युद्धों में चार्ल्स के समर्थकों की कमर टूट गई। चार्ल्स ने भागकर स्कॉटलैंड में शरण ली। बाद में वहाँ के निवासियों ने उसे पकड़कर पार्लमेंट के सुपुर्द कर दिया। इसके पश्चात्‌ चार्ल्स को लेकर पार्लमेंट और सेना में कुछ तनातनी प्रारंभ हो गई। चार्ल्स ने दोनो पक्षों से षड्यंत्रपूर्ण बातें कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहा। अंत तक कोई समझौता न हो सका। चार्ल्स 59 जजों के एक उच्च न्यायालय के सामने पेश किया गया जिसने उसे मृत्युदंड दे दिया।[४]

चार्ल्स द्वितीय (ग्रेट ब्रिटेन का) चार्ल्स प्रथम की मृत्यु पर दीर्घ पार्लमेंट ने राजतंत्र तथा लार्ड्‌स सभा को भंग कर दिया और इंग्लैंड को कामनवेल्थ घोषित किया। इसके बाद कुछ समय तक इंग्लैंड पर क्रामवेल के नेतृत्व में सेना का शासन चलता रहा। क्रामवेल की मृत्यु होने पर इंग्लैंड में राजतंत्र फिर से स्थापित हो गया और चार्ल्स द्वितीय इंग्लैंड के सिंहासन पर बिठा दिया गया। क्रामवेल की सैनिक निरंकुशता से लोग घबरा गए थे और प्यूरिटन मत के विरुद्ध हो गए थे। क्रामवेल की मृत्यु पर चारों ओर अराजकता फैल गई और लोग मनाने लगे कि इंग्लैंड में फिर से राजतंत्र स्थापित हो जाय। इसलिये जब चार्ल्स द्वितीय सिंहासनासीन हुआ तो लोगों के हृदय में उत्साह और राजभक्ति जागृत हो उठी। चार्ल्स प्रथम के समय में प्रजा में राजपद के प्रति जो कटुता उत्पन्न हो गई थी, उसे वे भूल गए।

चार्ल्स द्वितीय को जिस पार्लमेंट ने पुन: स्थापित किया था वह राजाज्ञा द्वारा नहीं बुलाई गई थी, इसलिये उसे 'कनवेंशन पार्लमेंट' कहते हैं। इस पार्लमेंट ने राजा की दशा सुधारकर बहुत कुछ पहले सी कर दी। चार्ल्स द्वितीय चार्ल्स प्रथम का पुत्र था। देखने में तो वह सीधा सादा था पर उसमें अपार प्रायोगिक बुद्धिमत्ता थी। वह ऐसे ऐसे षड्यंत्र तथा योजनाएँ बनाता जिससे बड़े बड़े राजनीतिज्ञ भी चक्कर में पड़ जाते। नैतिक दृष्टि से उसका जीवन गिरा हुआ था। वास्तव में वह रोमन कैथोलिक था पर प्रजा के विरोध के डर से खुले रूप में कैथोलिक मतावलंबियों के प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं करता था। अपने पिता की दशा वह देख चुका था जिससे वह जनमत के विरुद्ध कुछ भी खुले तौर से करने को तैयार नहीं था। यह सही है कि वह फ्रांस के शासक 14वें लुई की सहायता से कैथोलिक मत का पुनरुत्थान करना चाहता था। पर साथ ही वह अपनी शक्ति बढ़ाने की युक्ति भी सोच रहा था।

सन्‌ 1661 में कन्वेशन पार्लमेंट भंग कर दी गई और कैवेलियर पार्लमेंट बुलाई गई। इस पार्लमेंट ने कई कानून पास किए जिससे प्यूरिटन मतावलंबियों की स्वतंत्रता बहुत कुछ घट गई। चार्ल्स को यह प्रबंध कुछ जँचा नहीं। उसने एक आदेश निकालकर कैथोलिक मतावलंबियों तथा डिसेंटरों को उपयुक्त कानूनों द्वारा आरोपित अयोग्यताओं से मुक्त कर दिया। इसका पार्लमेंट में इतना विरोध हुआ कि चार्ल्स को अपना आदेश वापस ले लेना पड़ा। पर पार्लमेंट चार्ल्स की कैथोलिकों के प्रति सहानुभूति से सशंकित हो उठी। यहाँ तक कि कामंस सभा ने शैफ्ट्सबरी द्वारा प्रस्तुत बिल के अनुसार चार्ल्स के भाई जेम्स को उत्तराधिकार से वंचित करने का प्रयत्न किया पर लार्ड्स सभा ने इसे नहीं माना। इससे प्रोत्साहित होकर चार्ल्स ने अपने विरोधियों को उखाड़ फेंका और निष्कंटक राज्य करने लगा।

चार्ल्स ने फ्रांस से मित्रता और स्पेन से शत्रुता स्थापित रखी। अपव्ययी होने के कारण उसे सदा धन की आवश्यकता रहती थी। फ्रांस का लुई अपनी साम्राज्यवादी योजनाओं में इंग्लैंड की सहायता प्राप्त करने के लिये चार्ल्स को धन देता रहता था। इससे चार्ल्स लुई के हाथ की कठपुतली बन गया था। धन की लालच से चार्ल्स ने लुई से डोवर की गुप्त संधि कर ली और अपने देशवासियों की इच्छा के विरुद्ध डच लोगों से युद्ध की घोषण कर दी। दो युद्ध हुए जिनमें डचों के साथ अंग्रेजी नौसेना को भी बड़ी क्षति पहुँची। चार्ल्स की लुई पर निर्भरता देखकर अंग्रेज बड़े असंतुष्ट हुए। वे फ्रांस के विरुद्ध हो गए तथा डच लोगों से उन्हें सहानुभूति हो गई। अंत में देशव्यापी दबाव पड़ने पर चार्ल्स को हालैंड से संधि करने के लिये विवश होना पड़ा।

चार्ल्स के राजा बनने से पहले सरकार की जो दशा थी वह काफी सुधर गई। अपने पिता का दृष्टांत सामने रखकर चार्ल्स ने अपने शासनकाल में यथासंभव कभी जनमत के विरुद्ध जाने की चेष्टा नहीं की। उसके सिंहासनासीन होने पर 'स्टार चेंबर' आदि स्वेच्छाचारी कोर्ट समाप्त कर दिए गए। कुछ कर, जो सम्राट् को प्राप्त होते थे, वे भी बंद कर दिए गए। इससे राजा का शक्ति काफी घट गई। पर चार्ल्स प्रसन्न था। चार्ल्स के समय में समाज में भी कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए। लोग पहले शुद्ध तथा आदर्श जीवन व्यतीत करते थे पर अब समाज में चारों ओर व्यभिचार तथा अनैनिकता दीख पड़ने लगी। (मि. चं. पां.)

चार्ल्स चतुर्थ (1316 से 1378) बोहेमिया के जान का पुत्र, होली रोमन सम्राट् तथा बोहेमिया का राजा। इसने फ्रांस के राजा फिलिप छठे की बहिन से विवाह किया था। जब होली रोमन साम्राज्य की गद्दी रिक्त हुई तो लुई चतुर्थ के विरोध में यह भी उस गद्दी के लिये प्रत्याशी बना। क्रेशी के युद्धक्षेत्र में इसने अद्भुत पराक्रम दिखाया था। इस युद्धक्षेत्र ने उसके व्यक्तित्व को क्रिसेंडम में बहुत ऊँचे उठा दिया और 1347 ई. में वह लुई चतुर्थ के स्थान पर रोमन सम्राट् नियुक्त हुआ ओर आगामी वर्ष उसका राज्याभिषेक कर दिया गया। लुई चतुर्थ के जीवनकाल में ही ऐसा साधारण अनुमान हो गया था कि रोमन साम्राज्य का भावी नेतृत्व चार्ल्स चतुर्थ के ही मजबूत कंधों पर आएगा। बोहेमिया की आर्थिक व्यवस्था को स्थायित्व देने तथा देश का व्यापार बढ़ाने के लिये उसने बड़ी चेष्टा की। उसने प्रेग के विश्वविद्यालय की स्थापना की। देश के शिक्षास्तर में उसने वांछनीय परिवर्तन किया तथा साम्राज्य की कठिनाइयों के बीच भी बोहेमिया के स्वार्थ के लिये उसका सदैव चिंतित रहना, उसकी उच्च राष्ट्रीयता का द्योतक है।

चार्ल्स चतुर्थ के व्यक्तित्व के दो पक्ष थे, बोहेमिया के शासक और पावन रोमन सम्राट् के रूप में। दोनों ही दायित्वों का उसने समुचित निर्वाह किया। उसके शासनकाल में ही भावी साम्राज्य और पोप के संघर्षों के लक्षण प्रस्तुत होने लगे थे। किंतु चार्ल्स चतुर्थ ने इस बात की पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी दिखाई कि कोई अवांछनीय हलचल न उठ खड़ी हो।[५]

चार्ल्स पंचम (आस्ट्रिया का) यह आस्ट्रिया के शासक मैक्सीमीलियन का पौत्र तथा स्पेन के फर्डिनेंड का नाती था। इसका पिता नेदरलैंड्स का शासक था। अपने पितामह की मृत्यु पर इसे आस्ट्रिया तथा संबंधित प्रदेश मिल गए। अपने नाना फर्डिनेंड की मृत्यु पर इसे स्पेन तथा नेपुल्स आदि प्रदेशों का उत्तराधिकार मिला तथा पिता की मृत्य पर यह नेदरलैंड्स का भी स्वामी बन गया। मैक्सीमोलियन का पौत्र होने के कारण यह हैप्सबर्ग घराने का प्रतिनिधि था। उपर्युक्त उत्तराधिकार प्राप्त करने के पश्चात्‌ चार्ल्स प्रयत्न करके सारे साम्राज्य का सम्राट् चुन लिया गया और चार्ल्स पंचम के नाम से सिंहासनासीन हुआ। इस प्रकार हैप्सबर्ग घराने की सारे यूरोप में काफी धाक जम गई।

शार्लमान के समय से अब तक कोई सम्राट् इतने विशाल साम्राज्य का स्वामी नहीं हुआ था, जितना कि चार्ल्स पंचम। पर यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इससे चार्ल्स पर एक महान्‌ उत्तरदायित्व आ पड़ा था और उसे कई कठिनाइयों तथा समस्याओं को हल करने का भार उठाना पड़ा था। स्पेन, आस्ट्रिया, जर्मनी, इटली तथा नेदरलैंड्स की अलग अलग समस्याएँ थीं। इस प्रकार वैदिशिक नीति में पर्याप्त समायोजन की आवश्यकता थी। इसी समय लूथर का प्रोटेस्टेंट आंदोलन भी आंरभ हो गया। इस प्रकार इतने बड़े साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनने पर भी चार्ल्स की शक्ति बजाय बढ़ने के कुंठित हो गई। उसके संपूर्ण शासन काल में समय समय पर साम्राज्य के विभिन्न भागों में नाना प्रकार की समस्याएँ उठती रहीं और उन्हीं का समाधान करने में चार्ल्स क पर्याप्त शक्ति नष्ट होती रही।

चार्ल्स की योग्यता कुछ असाधारण न थी। यही कारण था कि अनेक समस्याओं को सुलझाने में, जिनमें उच्चस्तीरय राजनीतिक योग्यता की आवश्यकता थी, वह सफल न हो सका। पर इसमें भी संदेह नहीं कि उसे अपनी नीति में सफलताएँ मिलीं जिससे उसके शासन में निखार आ गया। उसने नेदरलैंड्स के अपने अधिकृत प्रदेशों को एकता के सूत्र में बाँधने का सफल प्रयत्न किया। उत्तरी अफ्रीका में उसने मुसलमानों पर अपना सिक्का जमाया तथा उनकी शक्ति को क्षीण कर दिया। स्पेन के अमरीका अधिकृत प्रदेशों में उसने पहले से अधिक उदार सरकार स्थापित की। लेकिन इन सब कार्यों में चार्ल्स को उतनी सफलता नहीं मिल सकती थी। कारण यह था कि विभिन्न जटिल समस्याओं के कारण उसका ध्यान उधर बँटा रहता था और वह किसी भी कार्य में अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता था। कई स्थानों पर तो उसे बहुत गहरी मात खानी पड़ी। जर्मनी में लूथर का प्रोटेस्टेंट आंदोलन उसका उदाहरण है। उस धार्मिक आंदोलन की गहराइयों को चार्ल्स न समझ सका और वह इसका निपटारा राजनीतिक दृष्टि से करने लगा। वह चाहता था कि आंदोलन अधिक न फैलने पाए, क्योंकि उसका अनुमान था कि ऐसा होने से लूथर के उपदेशों से प्रभावित होकर कुछ लोग उसके साथ हो जाएँगे और इस प्रकर जर्मनी की स्वामिभक्ति खंडित हो जाएगी। परिणाम यह होगा कि सम्राट् के रूप में चार्ल्स की स्थिति उतनी मजबूत न रह पाएगी। इसलिये उसने लूथर को वर्म्स की सभा में बुलाकर उसे धर्मसंबंधी अपने विचार बदलने को कहा। उसके इन्कार कर देने पर राजाज्ञा द्वारा उसकी पुस्तकों को नष्ट करने का आदेश दिया गया और उसे साम्राज्य से निष्कासित कर दिया गया, पर वास्तव में, इसका परिणाम कुछ नहीं हुआ क्योंकि चार्ल्स अपने विस्तृत साम्राज्य के विभिन्न कार्यों तथा फ्रांस से युद्ध में व्यस्त था। फिर जर्मनी के अनेक राजा भी लूथर के साथ थे। इस प्रकार लूथर क विचारधारा अबाध गति से बढ़ती गई। यह चार्ल्स की बड़ी हार थी।

चार्ल्स के शासनकाल में स्पेन के साथ बड़ा अन्याय हुआ। स्पेन पर चार्ल्स निरंकुश रूप से शासन करता और मनमाने कानून बनाता था। जब एक बार कैस्टिल निवासियों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया तब चार्ल्स ने विद्रोह को बुरी तरह कुचल दिया तथा कैस्टिल निवासियों की सारी स्वतंत्रता छीन ली। वास्तव में, चार्ल्स स्पेन की स्वंतत्र संस्थाओं का विरोधी था। जनसाधारण की, स्वतंत्रता उसे खलती थी। स्पेन निवासियों को सबसे अधिक कष्ट 'इन्क्विजिशन' से था। यह धार्मिक अदालत थी जिसका कार्य था पाखंडियों को दंड देना। पर चार्ल्स ने बिना किसी हिचकिचाहट के इस अदालत का राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने में प्रयोग किया। इसके अतिरिक्त जर्मनी तथा अन्य स्थानों में चार्ल्स के हितों की रक्षा करने के लिये स्पेन को धन तथा सैनिक देने पड़ते थे। इस प्रकार चार्ल्स ने स्पेन को खोखल कर डाला जिससे बाद में उसका पतन होना स्वाभाविक ही था।

अपनी सारी प्रधान योजनाओं में असफल हो जाने के कारण चार्ल्स अत्यधिक हताश हो गया। नाना प्रकार की योजनाओं में उसकी शक्ति नष्ट हो चुकी थी और उसका स्वास्थ्य खराब हो गया था। हारकर उसने सन्‌ 1556 में राज्यपद त्याग दिया।[६]

चार्ल्स पंचम (फ्रांस) (1337-80) फ्रांस का राजा। यह जार्ज द्वितीय का पुत्र था। उसने पटुआ (Poitiers) के यद्ध में (1356) अत्यधिक ख्याति प्राप्त की। जब इंग्लैंड से संघर्ष करते हुए उसके पिता को बंदी बना लिया गया था तो पिता की अनुपस्थिति में फ्रांस शासनभार कुशलतापूर्वक सँभाला। फ्रांस और स्पेन में जो परंपरागत प्रतिस्पर्धा एवं शत्रुता चली आ रही थी, उससे यह अछूता न रह सका और जब नवारे (Navarre) के राजा के विरुद्ध भी संघर्ष छिड़ा तो वह अंतत: विजयी हुआ। जब उसे यह समाचार मिला कि इंग्लैंड के कारागार में ही उससे पिता की मृत्यु हो गई तो उसने इंग्लैंड के विरुद्ध नए सिरे से युद्धसंचालन किया। इस कार्य में उसे पर्याप्त सफलता मिली और उसने इंग्लैंड के हाथों से अनेक नगर छीन लिए। 1378 ई. में उसने अनुभव किया कि फ्रांस में सम्मिलित कर दी जाय। अतएव उसने ब्रिटानी पर आक्रमण किया। लंबे संघर्ष के उपरांत उसने देखा कि ब्रिटानी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का विवादस्थल बन चुका है अत: उसे अपना उद्देश्य छोड़ना पड़ा। इसके उपरांत शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई।

कला और साहित्य में उसकी वृत्ति बहुत रमी थी। उसने अनेक ग्रंथों को एकत्र कर एक पुस्तकालय की स्थापना की थीं जिसमें प्रमुखत: ज्योतिष, कानून तथा दर्शन की पुस्तके थीं। वह बौद्धिक तथा कलात्मक प्रतिभा का व्यक्ति था। उसे दूर देशों के दार्शनिक, साहित्यकार इत्यादि को आमंत्रित करने में विशेष आनंद आता था।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गिरजाांकर मिश्र
  2. गिरजाांकर मिश्र
  3. गिरजाांकर मिश्र
  4. मिथलेश चांद्र पांडेय
  5. गिरजाांकर मिश्र
  6. मिथलेश चांद्र पांडेय