जॉन क्विंसी ऐडम्स

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लेख सूचना
जॉन क्विंसी ऐडम्स
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 274
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक मुहम्मद अजहर असगर अंसारी

ऐडम्स, जॉन क्विंसी (1767-1848) 11 जुलाई, 1767 को पैदा हुए। उनके पिता जॉन ऐडम्स अमरीका के दूसरे राष्ट्रपति थे। (द. 'ऐडम्स, जॉन') जॉन क्विंसी ने अपने पिता के साथ संपूर्ण यूरोप का भ्रमण किया। 1778 में पेरिस में शिक्षा ली ओर दो साल तक लाइडन में पढ़े। 1787 में हावर्ड कालेज से डिग्री लेकर तीन साल बाद वकालत की परीक्षा देकर बोस्टन में वकालत शुरू कर दी। वशिंगटन ने उनको नीदरलैंड में अमरीकी राजूदत बनाकर भेजा। 1796 में वे पुर्तगाल में राजदूत बनाए गए। 1797 में बर्लिन में राजूदत बने। 1801 में अपने देश लौट आए।

पहले फ़ेडरलिस्ट (संघीय) दल के सदस्य रहे फिर रिपब्लिकन दल में आ गए। 1806 से 1809 तक तीन साल हार्वर्ड विश्वविद्यालय में वाक्‌ शास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे। 1817 में मनरो के काल में राज्यमंत्री हुए।

मनरो के सिद्धांत को स्थापित करनेवाले ऐडम्स ही थे। यह उनका ही बनाया हुआ सिद्धांत था जो मनरो के नाम से प्रसिद्ध हुआ। फ़्लोरिडा पर अमरीकी अधिकार उनके ही कारण हुआ। जब राष्ट्रपति पद से मनरो अलग होने लगे तब इनका नाम उस पद के लिए मनोनीत किया गया। ये राष्ट्रपति चुने गए। 1828 से 1829 के बीच उनके साथियों और ऐडम्स के साथियों में लड़ाई हो गई, जो एक राजनीतिक मोड़ पर आ गई। 1829 में ऐडम्स इस पद से अलग हुए और 1830 में अपने नगर से सिनेट के लिए सदस्य चुने गए। जब उनसे कहा गया कि राष्ट्रपति पद पर रह चुकने पर साधारण सदस्य होना हेठी की बात होगी तब उन्होंने उत्तर दिया कि जब मैं सभा के लिए सदस्य चुन लिया गया हूँ तब मुझे तो वहाँ बैठना ही चाहिए। जनता की सेवा मेरा कर्तव्य है और मैं इस प्रकार की सेवा करना अपना अपमान नहीं समझता।

1831 के बाद का काल उनकी सेवाओं का है। इस बीच सदस्य के रूप में उन्होंने बहुत से काम किए। वह गुलामों के उस अधिकार के लिए लड़ते रहे जिसके अनुसार वे सभा के किसी भी सदस्य द्वारा अपना प्रार्थनापत्र दे सकें। इस अधिकार को छीननेवाला एक कानून बनाया गया था जो बाद को 'गला घोटनेवाला' कानून कहलाने लगा। ऐडम्स इस कानून का विरोध करते रहे। 1844 में यह कानून उन्हीं के अध्यवसाय से रद्द हुआ और गुलामों को प्रार्थनापत्र देने का अधिकार मिल गया।

उनकी सबसे बड़ी देन वह डायरी है जिसे उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन से ही लिखना शुरू किया था और आखिरी समय तक लिखते रहे। इस डायरी में उन्होंने अपने जमाने के प्रसिद्ध लोगों और मुख्य घटनाओं के संबंध में काफी लिखा है।

21 फरवरी, 1848 में सिनेट के अधिवेशन के बीच ही वह बेहोश होकर गिर पड़े और 23 फरवरी, 1848को उनका देहांत हो गया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ