जोन ऑव आर्क
जोन ऑव आर्क (१४१२-१४३१) फ्रांस की देशभक्त तथा फ्रांस और इंग्लैंड के बीच हुए विख्यात शतवर्षीय युद्ध के अंतिम, चरण की सेनानी, जोन ऑव आर्क फ्रेंच साम्राज्य के अतीव सीमांत प्रदेश लॉरेन (Lorraine) के डामरेमी (Domremy) नगर में १४१२ ई. में उत्पन्न हुई थी। जोन पवित्र, सुंदर और सुगठित महिला थी। वह विदुषी नहीं थी किंतु धर्मशास्त्र के मौलिक सिद्धांतों को उसने पढ़ा था। तेरह वर्ष की अवस्था से ही उसे ईश्वर की ध्वनि सुनाई देती थी और आगे चलकर उसने अविवाहित पवित्र जीवनयापन का संकल्प लिया। फ्रांस को ब्रिटेन की दासता से मुक्त कर, चार्ल्स का फ्रांस का राजमुकुट पहिनाने का आदेश उसे अपनी अंतर्ध्वनि से मिला। आरलियंस के घेरे (अक्टूबर, १४२८) के समाचार ने उसे उत्तेजित किया कि वह उस नगर की रक्षा के हेतु प्रस्थान कर मुक्तिसेना में संमिलित हो।
अंग्रेज वापस जाने के लिये विवश कर दिए गए और आरलियंस की रक्षा हुई। फिर उसने रेमो (Rheims) की ओर प्रस्थान करने को समझाया, जहाँ १७ जुलाई, १४२९ ई. को चार्ल्स सप्तम का राजतिलक हुआ।
जोन १४३० ई. में पेरिस की मुक्ति के लिये कूच किया किंतु असफल रही। फिर वह कंपीगन (Compiegne) नगर की ओर बढ़ी, जिसे बरगंडियन तथा उनके साथी अंग्रेजों ने घेर रखा था और उसने नगर में प्रवेश किया। कुछ सफलता मिलने के उपरांत वह बंदी बना ली गई और २४ मई, १४३० ई. को बरगंडी सेनानी के सम्मुख लाई गई, जिसने १०,००० स्वर्णिम क्रॉउन में उसे अंग्रेजों के हाथ बेच दिया। अंग्रेज और बरगंडियन दोनों ने उसे असंदिग्ध रूप से चुड़ैल घोषित किया, किंतु उसके अनुयायी उसे संत स्वीकार कर चुके थे। राजा पर उसके बढ़ते प्रभाव से दरबारी ईर्षालु हो गए थे तथा पेरिस की असफलता ने उसे अप्रिय कर दिया था। जोन को रुयन में कैद कर दिया गया और उसपर ९ जनवरी, १४३१ ई. को धर्मअतिक्रमण तथा पिशाचवृत्ति का आरोप लगाया गया। फ्रेंच बिशप द्वारा आयोजित न्यायालय ने उसे अपराधी घोषित किया। ३० मई, १४३१ ई. को उसे रुयन के बाजार में अग्निदंड दिया गया। शहीद होने के पूर्व, वह अपने द्वैध उद्देश्य, क्रमश: फ्रांस के त्राण तथा चार्ल्स सप्तम के राज्याभिषेक में सफल हो चुकी थी। फ्रांस को उसने नैतिक एकता प्रदान की। किंतु चार्ल्स ने, जो अपने सारे उत्कर्ष के लिये उसका पूर्णतया ऋणी था, उसकी विपत्ति में उँगली तक न उठाई। १४५६ ई. में राज्याभिषेक को पूर्णतया औचित्य प्रदान करने के लिये, १४३१ के अभियोग को अनुचित बताकर उस निर्णय का प्रतिकार किया गया। १८६९ में जोन को ईसाई संत घोषित करने का आंदोलन उठाया गया। १९०३ ई. में उसे पावन घोषित किया गया और अंतत: ९ मई, १९२० ई. को उसे संत की मान्यता प्रदान की गई।