दाल

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लेख सूचना
दाल
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 6
पृष्ठ संख्या 36-38
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी, फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रतन मेहरोत्रा

दाल अरहर, मूँग, उड़द, चना, मसूर, खेसारी अदि अनाजों को दलने से प्राप्त होती है। यह पकाकर रोटी और भात के साथ खाने के काम आती है। उपर्युक्त अनाज दलहन कहलाते हैं। ये सभी अनाज वनस्पति शास्त्र के लिग्यूमिनोसी (Leguminosae) गण के अंतर्गत हैं। इन अनाजों के अतिरिक्त कुछ और बीज हैं, जैसे सोयाबीन, सेम इत्यादि, जिनसे कहीं कहीं दालें बनती हैं।

हमारे भोजन का मुख्य अंग कार्बोहाइड्रेट है, जो हमें चावल, गेहूँ, जो इत्यादि अन्नों से स्टार्च के रूप में तथा फलों से शर्करा के रूप में प्राप्त होता है। कार्बोहाइड्रेट का पाचन सरलता से होता है और इससे ऊर्जा प्राप्त होती है, किंतु मांसपेशी बनने, शरीर की वृद्धि तथा पुराने ऊतकों का नवजीवन प्रदान करने में कार्बोहाइड्रेट से कोई सहायता नहीं मिलती है। इन कार्यों के लिए प्रोटीन की आवयकता पड़ती है। मांसाहारी जीवों को मांस से तथा शाकाहारियों को वनस्पतियों से प्रोटीन प्राप्त होता है। दालें शाकाहारियों के प्रोटीन प्राप्त करने की प्रमुख स्त्रोत हैं। एक वयस्क व्यक्ति के संतुलित भोजन में डेढ़ छटाँक दाल का होना आवश्यक है। भोजन में प्रयुक्त होने वाली प्रमुख दालें निम्नलिखित हैं:

अरहर

यह पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में सर्वाधिक खाई जानेवाली दाल है। अन्य राज्यों में भी यह दाल है। अन्य राज्यों में भी यह दाल जनप्रिय है। अरहर में प्रोटीन २७.६७ प्रतिशत, वसा २.३१ प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट ५७.२७ प्रतिशत, लवण ५.५० प्रतिशत तथा जल १०.०८ प्रतिशत रहता है। इसमें विटामिन बी पाया जाता है।

मूँग

इसमें प्रोटीन २३.६२ प्रतिशत, वसा २.६९ प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट ५३.४५ प्रतिशत, लवण ६.५७ प्रतिशत तथा जल १०.८७ प्रतिशत रहता है। इसमें विटामिन बी मिलता है। अन्य दालों की अपेक्षा यह शीघ्र पचती है। अत: रोगियों को पथ्य के रूप में भी दी जाती है।

उड़द

इसी को माष भी कहते हैं। इसमें प्रोटीन २५.५ प्रतिशत, वसा १.७ प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट ५३.४ प्रतिशत, लवण ३.३ प्रतिशत एवं जल १३.१ प्रतिशत होता है। इस दाल का पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मद्रास एवं मध्य प्रदेश में अत्यधिक प्रचलन है। दाल के अतिरिक्त बड़ा, कचौड़ी, इमिरती, इडली और दोसे इत्यादि के बनान में उड़द की दाल का ही विशेष उपयोग होता है।

मसूर

इटली, ग्रीस और एशिया का देशज है। भारत में उत्तर प्रदेश, मद्रास, बंगाल एवं महाराष्ट्र में इसका व्यवहार अत्यधिक हाता है और इसे पौष्टिक आहार समझा जाता है। इसमें २५.५ प्रतिशत प्रोटीन, १.९ प्रतिशत तेल, ५२.२ प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, ३.४ प्रतिशत रफेज एवं २.८ प्रतिशत लोहा होता है। इसकी राख में पोटाश एवं फॉस्फेट अधिक मात्रा में रहता है।

मटर

पूर्वी यूरोप का देशज है। इसकी दूसरी जाति पीसम सैटिवम (Pisum sativum) है, जो एशिया का देशज है। इसमें २२.५ प्रतिशत प्रोटीन, १.६ प्रतिशत तेल, ५३.७ प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, ५.४ प्रतिशत रफेज तथा २.९ प्रतिशत राख रहती है। लगभग सभ राज्यों में इसका उपयोग होता है। हरी फली से निकली मटर सब्जी के का आती है और पक जाने पर दाल के लिय इसका उपयोग होता है।

चना

इसका प्रयोग भारत में लगभग सभी प्रदेशों में सामान्य रूप से हाता है। यह सभी दलहनों में सर्वाधिक पौष्टिक पदार्थ है। पालतू घोड़े को भी यह खिलाया जाता है। घोड़े को खिलाया जाने वाला चना अंग्रेजी में हॉर्स ग्राम (Horse gram) कहलाता है। इसका वानस्पतिक नाम डॉलिकोस बाइफ्लोरस (Dolichos biflorus) है। इसमें विटामिन सी पर्याप्त मात्रा में रहता है। चने का बेसन पकौड़ी, बेसनी, कढ़ी तथा मिठाई बनाने के काम में आता है। हरा चना सब्जी बनाने एवं तलकर खाने के काम में आता है।

खेसारी

यह अत्यंत निम्नकोटि का दलहन है। पशुओं के खिलाने और खेतों में हरी खाद के लिए इसका उपयोग अधिक होता है। यह अल्प मात्रा में ही दाल के रूप में खाई जाती है। इसके अधिक सेबन से कुछ रोग हो जाने की सूचना मिली है।

सोयाबीन

यह पूर्वी एशिया का देशज है। इसकी फलियाँ छोटी, रोएँदार होती हैं, जिनमें दो से चार तक बीज होते हैं। इसमें ६६-७१ प्रतिशत जल, ५.५ प्रतिशत राख, १४ से १९ प्रतिशत वसा, ४.५ से ५.५ प्रतिशत रफेज, ५ स ६ प्रतिशत नाइट्रोजन, १.५ से ३ प्रतिशत स्टार्च, ८ से ९.५ प्रतिशत हेमिसेलूलोज़, ४ से ५ प्रतिशत पेंटोसन रहता है। इनके अतिरिक्त कैल्सियम, मैग्नीशियम और फॉस्फोरस रहते हैं।

सेम

यह कई प्रकार की होती है, जिसमें लाल और सफेद अधिक प्रचलित है। इसमें प्रोटीन १५ से २० प्रतिशत, राख ६ से ७ प्रतिशत, शर्करा २१ से २९ प्रतिशत, स्टार्च और डेक्सट्रिन १४ से २३ प्रतिशत हेमिसेलूलाज ८.५ से ११ प्रतिशत तथा पेंटोसन लगभग ७ प्रतिशत रहता है। इसके प्रोटीन बिना पकाए शीघ्र नहीं पचते।

दलहन

सभी दलहनों के लिए दुमट मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है। सभी दलहन वार्षिक पौधे हैं। इनके लिए समशीतोष्ण जलवायु और हलकी वर्षा आवश्यक होती है। दलहन के पौधों की जड़ों में वायुमंडल से नाइट्रोजन ग्रहण करने वाले जीवाणु रहते हैं, जो भूमि में नाइट्रोजन का संग्रह करके भूमि की उर्वरा शक्ति की वृद्धि करते हैं। इसलिय खेतों की उर्वरा शक्ति की वृद्धि करने के लिए शस्यचक्र की पद्धति अपनाई जाती है; जैसे, जिन खेतों में धान की फसल उगाई गई थी उनमें चने की फसल उगाई जाती है।

दलहन से दाल बनाना

दलहन से दाल छिलकेदार तथा बिना छिलके की बनाई जाती है। अब तो दलहन को दाल मिलों में भेजकर दाल बनवाना व्यावसायिक दृष्टि से लाभप्रद हो गया है। घरों में भी दलहन से दाल बनाई जाती है। छिलकेदार दाल बनाने के लिए जिस दलहन की दाल बनानी हो उसे चक्की द्वारा दल लेते हैं। बिना छिलके की दाल दो प्रकार से बनती है, पानी में भिगोकर अथवा मोयकर। दलहन को दलकर पानी में दो तीन घंटे तक भिगो देते हैं। इसके बाद दाल को पानी से निकालकर हाथ से खूब मसलकर छिलका अलग करते हैं और इस मसली हुई दाल को पानी में डाल देते हैं, जिससे छिलका पानी के ऊपर आ जाता है और दाल नीचे बैठ जाती है। छिलके को पानी के ऊपर से हटाकर, दाल को दो तीन बार मसलने और धोने से दाल प्राय: बिल्कुल छिलके रहित हो जाती है इस छिलके रहित दाल को धूप में सुखाकर रख लिया जाता है।

छिलके रहित दाल बनाने की दूसरी विधि यह है: पहले दलहन को धूप में खूब सुखा लेते हैं। एक सेर दलहन के लिए पानी में एक भर तेल मिलाकर, रात में दलहन को मोयकर, रातभर ढककर रख देते हैं और सवेरे पुन: धूप में सुखाते हैं। इस सूखे दलहन को चक्की में दलकर ओखली में छाँट लेते हैं, जिससे छिलका अलग हो जाता है। दाल को छाँटने में विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है, जिससे दाल टूटे नहीं।

दाल पकाने की विधि

दाल पकाने के पहले सभी दालों को अच्छी तरह से फटक तथा बीन लेना चाहिए। भिन्न भिन्न दालों के पकाने की विधि निम्नलिखित है:

अरहर की दाल

इसे पकाने से पहले अच्छी तरह बिन लेते हैं, जिसमें कंकड़ पत्थर, कचरा तथा सड़ी गली दाल एक भी न रहने पाए। अरहर का छिलका बहुत ही हानिकारक होता है। बटकोई में अंदाज से पानी भरकर अदहन चढ़ा देते हैं। जब अदहन खौलने लगे तब उसमें दाल को अच्छी तरह से दो तीन पानी से धोकर छोड़ देना चाहिए। इसके बाद जितनी दाल हो उसी अंदाज से नमक तथा हल्दी डालकर बटलोई का मुँह किसी कटोरी से ढँक देना चाहिए। बटलोई को किसी दूसरे चूल्हे की धीमी आँच पर रख देना चाहिए। इसके बाद आधा छटाँक घी कलछी में गरम करके उसमें हींग, जीरा, राई और लाल मिर्च का तड़का तैयार कर दाल को छौंक देना चाहिए। रुचि के अनुसार घी डालकर दाल खाने के काम में लाई जाती है।

मूँग की दाल

यह तीन प्रकार से पकाई जाती है:

  1. बिना धुली (छिलकेदार)
  2. धुली दाल (बिना छिलके की)
  3. खड़ी मूँग (समूची या साबित दाल)

बिना धुली हुई तथा घुली हुई मूँग की दाल अरहर की दाल की तरह पकाई जाती है।

खड़ी मूँग

इसे पकाने के पहले साफ कर लेना चाहिए। जितनी खड़ी मूँग बनानी हो उसे धो लेना चाहिए। धोने के उपरांत तपी हुई बटलोई में घी डाल देना चाहिए। जब घी गरम हो जाए, तब उसमें धुली धुली हुई खड़ी मूँग को डालकर भून लेना चाहिए। खड़ी मूँग को भूनकर बनाने से सोंधी तथा स्वादिष्ठ बनती है। जब मूँग थोड़ी सी भुन जाए तब उसमें गरम किया हुआ पानी अरहर की दाल की अपेक्षा अधिक डालना चाहिए। खड़ी मूँग को तेज आँच पर पकाना चाहिए। जब मूँग पक जाए तब अंदाज से उसमें नमक तथा पीसी हुई हल्दी छोड़ देनी चाहिए। जैसे ही मूँग फूलकर फटने लगे, बटलोई चूल्हे से उतारकर अंगारे पर रख देनी चाहिए। थोड़ी देर बाद कलछी से खूब घोंट देना चाहिए, जिससे दाल एक सी हो जाए। फिर कलछी में थोड़ा सा घी डालकर उसे गरम कर लें और जब घी गरम हो जाए तब हींग, जीरा और दो लाल मिर्च से दाल को छौंककर शीघ्र ही ढँक दें। थोड़ी देर अंगारे पर रखकर भोजन के काम में लाएँ। यह दाल बहुत ही रुचिकर होती है। कुछ लोग अपनी रुचि के अनुसार मसाला और खटाई भी डालते हैं।

उड़द की दाल

उड़द की दाल उसी तरह से पकाई जाती है जैसे मूँग की दाल। अंतर केवल इतना ही है कि उड़द की दाल पक जाने पर, उसमें अदरक, हरी मिर्च, मसाला आदि भी डालते हैं। मूंग की दाल में अदरक आदि नहीं डालते।

मटर की दाल

यह छोटी तथा बड़ी दोनों मटर की बनाई जाती है, किंतु छोटी मटर की दाल बड़ी मटर की दाल की अपेक्षा ज्यादा बादी होती है। इस दाल को पकाने के पहले खूब साफ बिनकर दो तीन पानी से धो डालना चाहिए और तदनंतर पानी में भिगो देना चाहिए। अन्य दाल के अदहन की अपेक्षा इस दाल के लिए दूना पानी बटलोई में रखकर अदहन गरम कर लेना चाहिए। अन्य दालों की अपेक्षा मटर की दाल कुछ देर से गलती है। अदहन हो जाने के बाद, भीगी हुई मटर की दाल का पानी पसाकर दाल को गरम अदहन में छोड़ देना चाहिए। इस दाल को तेज आँच पर पकाना चाहिए। जब दाल गल जाए तब उतार कर अंगाने पर बटलोई को रख देना चाहिए। दाल अच्छी तरह घुल जाने पर कलछी में थोड़ा सा घी गरम करके हींग, जीरा और दो लाल मिर्च का बघार तैयार कर दाल को छौंक देना चाहिए।

चने की दाल

इसे पकाने से पूर्व साफ कर लेना चाहिए। दाल को साफ करने के बाद बटलोई में अंदाज से अदहन चढ़ा दें। जब अदहन गरम हो जाए तब चने की दाल में घी लगाकर डालने से जल्दी गल जाती है। इसे तेज आँच पर पकाना चाहिए। दाल फट जाने के बाद बटलोई उतारकर अंगारे पर रख देनी चाहिए। फिर कलछी में थोड़ा सा घी लेकर उसे गरम कर लेना चाहिए। घी गरम हो जाने पर उसमें हींग, जीरा, लाल मिर्च डालकर दाल को छौंक देना चाहिए। कुछ लोग चने की दाल में लौकी तथा बैंगन भी डालते हैं।

खेसारी की दाल

जिस विधि से मटर को दाल बनाई जाती है उसी विधि से खेसारी की भी दाल पकाई जाती है। अदहन अरहर की दाल की तरह रखते हैं।

मसूर की दाल

यह भी दो तरह की होती है। एक तो दली हुई और दूसरी खड़ी। मसूर की दली हुई दाल अन्य दालों की अपेक्षा बहुत ही जल्दी गल जाती है। इसलिए इसमें अन्य दालों की अपेक्षा कम पानी का अदहन छोड़ते हैं। अदहन हो जाने के बाद दो तीन पानी से दाल धोकर उसमें छोड़ दी जाती है और अंदाज से नमक तथा हल्दी छोड़ देते हैं। इच्छानुसार मसाला डालकर बटलोई को उतारकर अंगारे पर रख देना चाहिए, जब दाल अच्छी तरह घुट जाए तब कलछी में घी डालकर गरम कर ले और उसमें जीरा, हींग, लौंग और लाल मिर्च डालकर बघार तैयार कर दाल छौंक देनी चाहिए।

खड़ी मसूर

इसे बनाने के पहले धोकर रख दें। बाद में आँच पर बटलोई रखकर उसमें घी, जीरा तथा हींग डालकर सुर्ख कर लें। इसके बाद खड़ी, मसूर छोड़कर भून लें। जब सुगंध आने लगे तब उसमें अंदाज से पानी डाल दें। दाल में उफान आने के बाद अंदाल से नमक तथा पीसी हुई हल्दी छोड़ देना चाहिए। दाल गल जाने पर बटलोई चूल्हे से उतारकर अंगारे पर रख दें। इसके बाद अंदाज से दाल में गरम मसाला छोड़कर बटलोई का मुँह ढँक देना चाहिए। दाल पक जाने के बाद भोजन के काम में लाई जाती हैं। अपने इच्छानुसार दाल में घी भी डालते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ