भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-140

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

भागवत धर्म मिमांसा

10. पूजा

(27.1) पिंडे वाय्वग्नि-संशुद्धे हृत्पद्यस्थां परां मम ।
अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् नादान्ते सिद्ध-भाविताम् ।।[१]

एक बहुत सूक्ष्म जीवकला है, उसका ध्यान करना चाहिए। जैमिनि ने आत्मा को अणु माना है, यहाँ भी कहा है कि जीवकला अणु-समान है। लेकिन यहाँ आत्मविषयक वाद नहीं है। अणु यानी सूक्ष्म जीवकला का ध्यान करने के लिए कह रहे हैं – अण्वीं जीवकलां ध्यायेत्। यह ध्यान कब करना है? नादान्ते – नाद की समाप्ति पर। नाद यानी क्या? ऊँ नाद है, उसके अन्त में जीवकला का ध्यान करना है। यह जीवकला है कहाँ? हृत्पद्यस्थाम् – हृदय में है। कैसी है? परां मम – मेरी परम कला है। यह जो सारी सृष्टि दीखती है, वह भगवान् की ही कला है। लेकिन यह हृदय-कला है। उसके लिए मन्दिर कौन-सा है? पिंडे वाय्वग्नि-संशुद्धे – वायु और अग्नि से शुद्ध किया हुआ पिण्ड उसका मन्दिर है। ध्यान करने से पहले उसे शुद्ध करना है। कैसे शुद्ध करेंगे? वायु और अग्नि से। अग्नि यानी पचनाग्नि। आसनादि से पचनाग्नि पैदा होती है। व्यापक अर्थ में सोचा जाए, तो शरीर-परिश्रम, खेती-काम से भी अग्नि पैदा होती है। वायु कहाँ से शुद्ध करें? प्राणायाम द्वारा वायु शुद्ध होती है। वायु से मन्दिर शुद्ध करने के लिए कहा है, इसीलिए बाबा अधिक-से-अधिक खुले आकाश में रहता है। भगवान् की कला पेड़ में भी दीखती है, लेकिन यहाँ हृदयस्थ जीवकला को लिया है। फिर कहा है, उस कला का भावन अनेक सिद्ध-पुरुषों ने किया है। भावन यानी बार-बार स्मरण, अनुसन्धान करना। जैसे होमियोपैथी की दवा घोट-घोटकर तैयार की जाती है। इसी को कहते हैं, ‘पोटेन्सी’ बढ़ाना। इसी का नाम है सिद्ध भाविताम्। यह सारा कहकर सलाह क्या दी? यही कि भाई! सिद्ध पुरुषों ने जो मार्ग दिखाया है, उस पर चलो। यानी इसके लिए मार्गदर्शन लेना चाहें तो सिद्ध पुरुषों से लें। यहाँ पूजा-विधि समझायी जा रही है। प्रथम तो ध्यान करें, फिर क्या करें? तो कहते हैं : (27.2) स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि । स्तुत्वा प्रसीद भगवन्! इति वंदेत दंडवत् ।।[२] छोटे-बड़े स्तोत्रों से स्तवन करें। कौन-से स्तोत्र? स्तोत्र भी चुनने चाहिए। कहाँ से चुने जाएँ? पुराणों से। पुराणों से चुनने के लिए क्यों कहा? इसिलए कि वे घोटे हुए हैं, भावन किये हुए हैं। उनकी ‘पोटेन्सी’ बढ़ी है। कुछ प्राकृत स्तोत्र भी चल जायेंगे। तुलसीदासजी की ‘विनय-पत्रिका’ चलेगी। फिर स्तवन तो अपनी वाणी से करना है। स्तुत्वा प्रसीद भगवन्! – स्तोत्रों से नहीं, अपनी वाणी से, अपने शब्दों में भगवान् से हम क्षमा माँगें। मेरी माँ कहा करती थी : ‘अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायक! मेरे अपराधों को क्षमा कर।’ इसका नाम है स्तवन। स्तोत्र भी छोटे और बड़े दोनों गाने चाहिए। ‘षट्पदी’[३] जैसे छोटे और ‘महिम्नः’ [४] जैसे बड़े स्तोत्र गायें, जिससे छोटे-बड़े दोनों उसमें भाग ले सकें। सामूहिक भावना बताने के लिये यह कहा है। समूह में छोटे बच्चे होंगे और बड़े लोभ भी, इसलिए छोटे-बड़े दोनों प्रकार के स्तोत्र गाने चाहिए। प्रसीद – प्रसन्न हो। ‘भगवन् प्रसीद’ कहकर दण्डवत् प्रणाम करना चाहिए – वंदेत दण्डवत्


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.27.23
  2. 11.27.45
  3. यह ‘षट्पदी-स्तोत्र’ श्री शंकराचार्य-कृत कहा जाता है, जिसमें मात्र, जिसमें मात्र, 6. श्लोक हैं। इसका आरंभ है : ‘अविनयमपनय विष्णो!.....’
  4. ‘म्हिम्नः-स्तोत्र’ भगवान् संकर की स्तुति में पुष्पदन्ताचार्य ने बनाया है, जिसके कुल 43 श्लोक हैं। इसका आरंभ है : ‘महिम्नः पारं ते....!’

संबंधित लेख

-