महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 118 श्लोक 16-24

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टादशाधिकशततम (118) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-24 का हिन्दी अनुवाद

प्रतिदिन रात के पिछले पहरों में सूत, मागध और वन्दीजन मेरी स्तुति करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे देवता प्रिय वचन बोलकर महेन्द्र के गुण गाते हैं। आप सत्यप्रतिज्ञ हैं, अमित तेजस्वी हैं, आपके प्रसाद से ही आज मैं कीड़े से राजपूत हो गया हूँ। महाप्रज्ञ ! आपको नमस्कार है, मुझे आज्ञा दीजिये मैं आपकी क्या सेवा करूँ; आपके तपोबल से ही मुझे राजपद प्राप्त हुआ है। व्यासजी ने कहा- राजन् ! आज तुमने अपनी वाणी से मेरा भलीभाँति स्तवन किया है। अभी तक तुम्हें अपनी कीट योनि की घृणित स्मृति अर्थात् मांस खाने की वृत्ति बनी हुई है। तुमने पूर्वजन्म में अर्थपरायण, नृशंस और आततायी शूद्र होकर जो पाप संजय किया था, उसका सर्वदा नाश नहीं हुआ है। कीट-योनि में जन्म लेकर भी जो तुमने मेरा दर्शन किया, उसी पुण्य का यह फल है कि तुम राजपूत हुए और आज तो तुमने मेरी पूजा की, इसके फलस्वरूप तुम इस क्षत्रिय योनि के पश्चात् प्राह्मणत्व को प्राप्त करोगे। राजकुमार ! तुम नाना प्रकार के सुख भोगकर अन्त में गौ और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये संग्राम भूमि में अपने प्राणों की आहुति दोगे। तदनन्तर ब्राह्मणरूप में पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञों का अनुष्ठान करके स्वर्ग सुख का उपभोग करोूगे। तत्पश्चात् अविनाशी ब्रह्मस्वरूप होकर अक्षय आनन्द का अनुभव करोगे। तिर्यग् योनि मेें पडत्रा हुआ जीव जब ऊपर की ओर उठता है, तब वहाँ से पहले शूद्र भाव को प्राप्त होता है। शूद्र वैश्ययोनि को, वैश्य क्षत्रिय योनि को और सदाचार से सुशोभित क्षत्रिय ब्राह्मण योनि को प्रापत होता है। फिर सदाचारी ब्राह्मण पुण्यमय स्वर्गलोक को जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में कीड़े का उपाख्यान विषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।