महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 87-92

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 87-92 का हिन्दी अनुवाद


690 मनोजवः- मन की भाँति वेगवाले, 691 तीर्थकरः- समस्त विद्याओं के रचयिता और उपदेशकर्ता, 692 वसुरेताः- हिरण्यमय पुरूष (प्रथम पुरूषसृष्टि का बीज) जिनका वीर्य है- ऐसे सुवर्णवीर्य, 693 वसुप्रदः- प्रचुर धन प्रदान करने वालजे, 694 वसुप्रदः- अपने भक्तों को मोक्षरूप महान् धन देने वाले, 695 वासुदेवः- वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण, 696 वसुः- सबके अन्तःकरण में निवास करने वाले, 697 वसुमनाः- समानभाव से सब में निवास करने की शक्ति से युक्त मनवाले, 698 हवः- यज्ञ में हवन किये जाने योग्य हविःस्वरूप। 699 सद्गतिः- सत्पुरूषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य गतिस्वरूप, 700 सत्कृतिः- जगत् की रक्षा आदि सत्कार्य करने वाले, 701 सत्ता- सदा-सर्वदा विद्यमान सत्तास्वरूप, 702 सद्भूतिः- बहुत प्रकार से बहुत रूपों में भासित होने वाले, 703 सत्परायणः- सत्पुरूषों के परम प्रापणीय स्थान, 704 शूरसेनः- हनुमानादि श्रेष्ठ शूरवीर योद्धाओं से युक्त सेनावाले, 705 यदुश्रेष्ठः- यदुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ, 706 सन्निवासः- सत्पुरूषों के आश्रय, 707 सुयामुनः- जिनके परिकर यमुना-तट निवासी गोपालबाल आदि अति सुन्दर हैं, ऐसे श्रीकृष्ण। 708 भूतावासः- समस्त प्राणियों के मुख्य निवास- स्थान, 709 वासुदेवः- अपनी माया से जगत् को आच्छादित करने वाले परमदेव, 710 सर्वासुनिलयः- समस्त प्राणियों के आधार, 711 अनलः- अपार शक्ति और सम्पत्ति से युक्त, 712 दर्पहा- धर्मविरूद्ध मार्ग में चलने वालों के घमण्ड को नष्ट करने वाले, 713 दर्पदः- अपने भक्तों को विशुद्ध उत्साह प्रदान करने वाले, 714 दृप्तः- नित्यानन्दमग्न, 715 दुर्धरः- बड़ी कठिनता से हृदय में धारित होने वाले, 716 अपराजितः- दूसरों से अजित। 717 विश्वमूर्तिः- समस्त विश्व ही जिनकी मूर्ति है- ऐसे विराट्स्वरूप, 718 महामूर्तिः- बड़े रूपवाले, 719 दीप्तमूर्तिः- स्वेच्छा से धारण किये हुए देदीप्यमान स्वरूप से युक्त, 720 अमूर्तिमान्- जिनकी कोई मूर्ति नहीं- ऐसे निराकार, 721 अनेकमूर्तिः- नाना अवतारों में स्वेच्छा से लोगों का उपकार करने के लिये बहुत मूर्तियों को धारण करने वाले, 722 अव्यक्तः- अनेक मूर्ति होते हुए भी जिनका स्वरूप किसी प्रकार व्यक्त न किया जा सके- ऐसे अप्रकटस्वरूप, 723 शतमूर्तिः- सैकड़ों मूर्तियों वाले, 724 शताननः- सैकड़ों मुखों वाले। 725 एकः- सब प्रकार के भेदभावों से रहित अद्वितीय, 726 नैकः- अवतार-भेद से अनेक, 727 सवः- जिनमें सोमनाम की ओषधि का रस निकाला जाता है- ऐसे यज्ञ स्वरूप्, 728 कः- सुखस्वरूप, 729 किम्- विचारणीय ब्रह्मस्वरूप, 730 यत्- स्वतःसिद्ध, 731 तत्-विस्तार कने वाले, 732 पदमनुत्तमम्- मुमुक्षु पुरूषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य अत्युत्तम परमपदस्वरूप, 733 लोकबन्धुः- समस्त प्राणियों के हित करने वाले परम मित्र, 734 लोकनाथः- सबके द्वारा याचना किये जाने योग्य लोकस्वामी, 735 माधवः- मधुकुल में उत्पन्न होने वाले, 735 भक्तवत्सलः- भक्तों से पे्रम करने वाले। 737 सुवर्णवर्णः- सोने के समान पीतवर्ण वाले, 738 हेमांगः- सोने के समान चमकीले अंगों वाले, 739 वरांगः- परम श्रेष्ठ अंग-प्रत्यंगों वाले, 740 चन्दनांगदी- चन्दन के लेप और बाजूबंद से सुशोभित, 741 वीरहा- शूरवीर असुरों का नाश करने वाले, 742 विषमः- जिनके समान दूसरा कोई नहीं- ऐसे अनुपम, 743 शून्यः- समस्त विशेषणों से रहित, 744 घृताशीः- अपने आश्रित जनों के लिये कृपा से सने हुए द्रवित संकल्प करने वाले, 745 अचलः- किसी प्रकार भी विचलित न होने वाले- अविचल, 746 चलः- वायुरूप से सर्वत्र गमन करने वाले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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