महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 161 श्लोक 1-21

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एकषष्‍टय्‍धिकशतम (161) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: षष्‍टयधिकशततम (161) अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

भगवान शंकर के माहात्‍म्‍य का वर्णन

भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा – महाबाहु युधिष्ठिर ! अब मैं अनेक नाम और रूप धारण करने वाले महात्‍मा भगवान रूद्र का महात्‍म्‍य बतला रहा हूँ, सुनिये। विद्वान पुरूष इन महादेवजी को अग्नि, स्‍थाणु, महेश्‍वर, एकाक्ष, त्र्यम्‍बक, विश्‍वरूप और शिव आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। वेद में उनके दो रूप बताये गये हैं, जिन्‍हें वेदवेत्ता ब्राह्मण जानते हैं । उनका एक स्‍वरूप तो घोर है और दूसरा शिव । इन दोनों के भी अनेक भेद हैं। इनकी जो घोर मूर्ति है, वह भय उपजाने वाली है । उसके अग्नि, विद्युत और सूर्य आदि अनेक रूप हैं । इससे भिन्‍न जो शिव-नामवाली मूर्ति है, वह परम शान्‍त एवं मंगलमयी है । उसके धर्म, जल और चन्‍द्रमा आदि कई रूप है। महादेवजी के आधे शरीर को अग्नि और आधे को सोम कहते हैं । उनकी शिवमूर्ति ब्रह्मचर्य का पालन करती है और अत्‍यन्‍त घोर मूर्ति है, वह जगत का संहार करती है । उनमें महत्‍व और ईश्‍वरत्‍व होने के कारण वे ‘महेश्‍वर’ कहलाते हैं। वे जो सबको दग्‍ध करते हैं, अत्‍यन्‍त तीक्ष्‍ण हैं, उग्र और प्रतापी हैं, प्रलयाग्निरूप से मांस, रक्‍त और मज्‍जा को भी अपना ग्रास बना लेते हैं; इसलिये ‘रूद्र’ कहलाते हैं। वे देवताओं में महान हैं, उनका विषय भी महान है तथा वे महान विश्‍व की रक्षा करते हैं; इसलिये ‘महादेव’ कहलाते हैं। अथवा उनकी जटा का रूप धूम्र वर्ण का हे, इसलिये उन्‍हें ‘धूर्जटि’ कहते हैं । सब प्रकार के कर्मोंद्वारा सब लोगों की उन्‍नति करते हैं और सबका कल्‍याण चाहते हैं; इसलिये इनका नाम ‘शिव’ है। वे ऊर्ध्‍वभाग में स्थित होकर देहधारियों के प्राणों का नाश करते हैं । सदा स्थिर रहते हैं और जिनका लिंग-विग्रह सदा स्थिर रहता है ।
इसलिये ये ‘स्‍थाणु’ कहलाते हैं। भूत, भविष्‍य और वर्तमान काल में स्‍थावर और जंगमों के आकार में उनके अनेक रूप प्रकट होते हैं, इसलिये वे ‘बहुरूप’ कहे गये हैं । समस्‍त देवता उनमें निवास करते हैं; इसलिये वे ‘विश्‍वरूप’ कहे गये हैं । उनके नेत्र से तेज प्रकट होता है तथा उनके नेत्रों का अन्‍त नहीं है । इसलिये वे ‘सहस्‍त्राक्ष’, ‘आयुताक्ष’ और ‘सर्वतोअक्षिमय’ कहलाते हैं। वे सब प्रकार से पशुओं का पालन करते हैं, उनके साथ रहने में सुख मानते हैं तथा पशुओं के अधिपति हैं, इसलिये वे पशुपति कहलाते हैं। मनुष्‍य यदि ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रतिदिन स्थिर शिवलिंग की पूजा करता है तो इससे महात्‍मा शंकर को बड़ी प्रसन्‍नता होती है। जो महात्‍मा शंकर के श्रीविग्रह अथवा लिंग की पूजा करता है, वह लिंगपूजक सदा बहुत बड़ी सम्‍पत्ति का भागी होता है। ॠषि, देवता, गन्‍धर्व और अप्‍सराएँ ऊर्ध्‍वलोक में स्थित शिवलिंग् की ही पूजा करती हैं । इस प्रकार शिवलिंग की पूजा होने पर भक्‍तवत्‍सल भगवान महेश्‍वर बड़े प्रसन्‍न होते हैं और प्रसन्‍नचित्त होकर वे भक्‍तों को सुख देते हैं। वे प्राणियों के शरीरों में रहने वाले और उनके मृत्‍यु रूप हैं तथा वे ही प्राण-अपान आदि वायु के रूप से देह के भीतर निवास करते हैं। उनके बहुत-से भयंकर एवं उद्दीप्‍त रूप हैं, जिनकी जगत में पूजा होती है। विद्वान ब्राह्मण ही उन सब रूपों को जानते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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